माहिया पंजाब की एक लोक-विधा है । इसके छंद का प्रयोग करते हुए आधुनिक भाव-बोध को व्यक्त करने का यह एक छोटा-सा प्रयास है :
चेहरे प्रतिमाओं के ।
छंद हैं ये पत्थर पर
लिक्खी कविताओं के ।
चेहरे पर दो आँखें ।
उड़ते बनपाखी की
फैली हुई हैं पाँखें ।
चेहरे क्यों उतर गये ?
दांत दुश्चिंता के
भीतर तक कुतर गये ।
चेहरे की लकीरों में ।
दर्द रेखांकित है
बूढी तस्वीरों में ।
चेहरों में परिवर्तन ।
होगा फिर नाटक का
इक और खुला मंचन ।
चेहरे भ्रमजाल बने ।
ये कभी नारायण
कभी नर-कंकाल बने ।
चेहरों का जंगल है ।
घना कुहरा है कभी
कभी छाया हुआ बादल है ।
चेहरे फिर सख्त हुए ।
प्यार विकलांग हुआ
रिश्ते हैं दरख़्त हुए ।
चेहरों की एल्बम है ।
खाली इक पृष्ठ पड़ा
कि अधूरी सरगम है ।
8 टिप्पणियां:
बहुत बढ़िया प्रस्तुति।बधाई।
so so so good
no more words to say.
thanks
बहुत ही सुन्दर छन्दों का प्रयोग किया ही।
चेहरों में परिवर्तन ।
होगा फिर नाटक का
इक और खुला मंचन ।
waah!
बहुत ही अच्छी रचना.
चेहरों पर उत्तम रचना लिखी है सर आपने
खूब बधाईयाँ
मुझे आज ज्ञात हुआ कि आपने बहुत रचनायें इन्टरनेट पर डाल रखी हैं
कल 17/07/2012 को आपकी यह पोस्ट (विभा रानी श्रीवास्तव जी की प्रस्तुति में) http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!
इस भाव में माहिया नहीं पढ़ा था..बहुत हीं सुन्दर...आभार....
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