शुक्रवार, 4 सितंबर 2009

शिक्षक दिवस पर

यद्यपि मैं बिल्कुल ठोस, भरा-पूरा
और साबुत दिखायी देता हूँ,
मेरी एक प्रतिमा खंडित हो चुकी है।
मैंने उसे खंडित होते
लगातार, खुली आँखों से देखा है।
दरअसल ऐसा एकदम से नहीं हुआ,
रातोंरात भी नहीं,
बल्कि थोड़ा-थोड़ा कर के
पिछले कई बरसों में हुआ है।
एक बार जब मैंने कहा
"कहते तो हैं पर पक्का पता नहीं"
प्रतिमा में हलकी सी दरार आयी ।
दूसरी बार जब मैंने कहा
"पक्का पता है लेकिन ऐसा कहते नहीं"
सुन कर बच्चे चौंके ।
तीसरी बार जब मैंने कहा
"यह भी ठीक है और वह भी"
वे बोल उठे -- "अच्छा जी ?"
फिर तो चौथी बार मैंने कहा
"ठीक-ग़लत के पचडे में मत पडो"
पाँचवीं बार मैंने कहा
"कुछ फर्क नहीं पड़ता
कुछ नहीं होने वाला"
यानी हर बार सिलसिलेवार
उस प्रतिमा को खंडित होते मैंने देखा
अपने बच्चों की आँखों के अन्दर
उस प्रतिमा के साथ और बहुत कुछ टूट गया
मेरे बच्चों के भीतर
बेआवाज़ लेकिन सिलसिलेवार ।
मैं यूँ ही तो नहीं इतना शर्मसार !

4 टिप्‍पणियां:

Udan Tashtari ने कहा…

शिक्षक दिवस पर समस्त शिक्षकों को नमन!

वाणी गीत ने कहा…

बहुत ईमानदार आत्मस्वीकृति जो प्रत्येक ईमानदार करता है परिस्थितियों के मद्देनज़र ..
शिक्षक दिवस की बहुत शुभकामनायें ..!!

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

सुन्दर रचना!
शिक्षक दिवस की बहुत शुभकामनायें!

Manu ने कहा…

Kal jab aapka blog padha to socha- 'aisa kaise ho sakta hai ki itne great teacher hone ke baavjud sir ne koi kavita teaching par nahi likhi'

Pata nahi kal kyu ye kavita meri najar ko najar nahi aai.Or jab aaj is iklauti enrty ko teaching subject ke under dekha or padha to laga-
'ye 1 hi kaafi hai'

Hats off to you