बाज़ारों में चमक-दमक है ।
जिधर देखिये बस रौनक है ।
नए-नए चैनल टी वी पर
हर पल रहे बदल टी वी पर ।
हर दफ्तर में मेज़ के ऊपर
रक्खा रहता है कम्प्यूटर ।
पहले तो होती थी फाइल
हाथों में अब है मोबाइल ।
बिजली की तारें ज़्यादा हैं ।
सड़कों पर कारें ज़्यादा हैं ।
पीं पीं पीं पीं पों पों पों है ।
हर कोई जल्दी में क्यों है ?
गुरुवार, 29 अक्तूबर 2009
रविवार, 25 अक्तूबर 2009
मरीचिका
रेलगाड़ी अभी नहीं आयी थी । उमस बढती जा रही थी । गरमी में पसीने की चिपचिपाहट से सबके बदन भीग गए थे । कितने ही होंठ पपडाए हुए थे । लोहे की जाली वाली खिड़की के ऊपर तीन भाषाओँ में लिखा था-- 'शीतल जल' । खिड़की के सामने लोगों को पंक्तिबद्ध रखने के लिए मज़बूत पाइप लगे थे ।
पानी नहीं मिल रहा था । लोग शिकायत के लहजे में बातें कर रहे थे । एक युवक दो बार स्टेशन मास्टर के कमरे में झाँक आया था । उसने अपनी नोटबुक में से कागज़ फाडा । पानी न मिलने की शिकायत उस पर लिखी । सधे हुए क़दमों से वह शिकायत-पेटिका की ओर बढा ।
'ऊ....ई ...!' दर्द से चिल्लाते हुए युवक ने अपना हाथ शिकायत-पेटिका के जबड़ों में से वापिस खींच लिया । शिकायत वाला कागज़ नीचे गिर गया । पीली-पीली बर्रों का झुंड पेटिका में से निकल कर मँडराने लगा ।
'शीतल जल' वाली खिड़की के आगे से भीड़ छँटने लगी थी । नकली शीतल पेय बेचने वाले स्टाल पर भीड़ बढने लगी थी ।
पानी नहीं मिल रहा था । लोग शिकायत के लहजे में बातें कर रहे थे । एक युवक दो बार स्टेशन मास्टर के कमरे में झाँक आया था । उसने अपनी नोटबुक में से कागज़ फाडा । पानी न मिलने की शिकायत उस पर लिखी । सधे हुए क़दमों से वह शिकायत-पेटिका की ओर बढा ।
'ऊ....ई ...!' दर्द से चिल्लाते हुए युवक ने अपना हाथ शिकायत-पेटिका के जबड़ों में से वापिस खींच लिया । शिकायत वाला कागज़ नीचे गिर गया । पीली-पीली बर्रों का झुंड पेटिका में से निकल कर मँडराने लगा ।
'शीतल जल' वाली खिड़की के आगे से भीड़ छँटने लगी थी । नकली शीतल पेय बेचने वाले स्टाल पर भीड़ बढने लगी थी ।
मंगलवार, 20 अक्तूबर 2009
असली बात
असली बात तो इन्सानी तकलीफ़ों की है ।
तकलीफ़ों की सूरत, देखो,
कैसी मिलती-जुलती-सी है ।
जैसी तेरे आसपास हैं
वैसी ही दुखदायी स्थितियाँ
मुझको कर जाती उदास हैं ।
यूँ ही अकेला कर जाती हैं
हम सब को पीड़ाएं
लेकिन
यह भी क्या संताप नहीं है ?
दुख-दर्दों में टूट-टूट कर
अलग पड़े रहना ही
आख़िर क्यों हमको लाजिम लगता है ?
जुड़ भी तो सकते हैं हम-तुम
उन दुख-दर्दों में फँस कर
जो साँझे हैं, मिलते-जुलते हैं ।
मुमकिन है, तकलीफें फिर भी
ख़त्म नहीं हों ।
पर मुमकिन है
उनको ख़त्म किए जाने की
कोई राह निकल ही आए !
असली बात नहीं
दुख-दर्दों तकलीफ़ों की;
असली बात हमारे
दुख में मिल-जुल कर
रहने की भी है !
तकलीफ़ों की सूरत, देखो,
कैसी मिलती-जुलती-सी है ।
जैसी तेरे आसपास हैं
वैसी ही दुखदायी स्थितियाँ
मुझको कर जाती उदास हैं ।
यूँ ही अकेला कर जाती हैं
हम सब को पीड़ाएं
लेकिन
यह भी क्या संताप नहीं है ?
दुख-दर्दों में टूट-टूट कर
अलग पड़े रहना ही
आख़िर क्यों हमको लाजिम लगता है ?
जुड़ भी तो सकते हैं हम-तुम
उन दुख-दर्दों में फँस कर
जो साँझे हैं, मिलते-जुलते हैं ।
मुमकिन है, तकलीफें फिर भी
ख़त्म नहीं हों ।
पर मुमकिन है
उनको ख़त्म किए जाने की
कोई राह निकल ही आए !
असली बात नहीं
दुख-दर्दों तकलीफ़ों की;
असली बात हमारे
दुख में मिल-जुल कर
रहने की भी है !
शनिवार, 17 अक्तूबर 2009
ग्रीटिंग कार्ड
तुम्हें कैसे ग्रीटिंग कार्ड पसंद हैं ?
दुकान में जाता हूँ, तो कितने ही रंगों का
ठहरा हुआ समंदर
फैला होता है काउंटर पर ।
दुकानदार कहता है -"कोई भी चुन लीजिये, साहब,
हमारे पास हर तरह के कार्ड हैं ।
इन कार्डों पर हँसाने-गुदगुदाने वाले कार्टून हैं ।
उन पर उतरे हुए शिमला, मसूरी, देहरादून हैं ।
कुछ पर नावें, चिड़ियाँ, फूल,
साँझ का उदास वातावरण है ।
कुछ में जंगल, बादल व निर्झर की कल-कल का चित्रण है ।
कई मिलन-दृश्य हैं प्रेमी-युगलों के सिलुएट में
कोलाज या क्यूबिक आर्ट के कार्ड हैं इस पैकेट में ।
इन कार्डों पर हँसते-मुस्काते नन्हे-मुन्नों के चित्र हैं ।
उन को पा कर खुश होंगे, अविवाहित जो मित्र हैं !
ये पेंटिंग्स बनाई हैं बच्चों ने
अपने नाज़ुक हाथों से...."
परेशान-सा हूँ मैं दुकानदार की बातों से ।
सोचता हूँ, तुम्हें कैसे ग्रीटिंग कार्ड पसंद हैं ?
क्या तुम्हें भी ऐसे ग्रीटिंग कार्ड पसंद हैं
जो वर्ष में तीन-चार गिने-चुने अवसरों के
कृत्रिम औचित्य के दायरे में बंद हैं ?
दुकानदार से नहीं कहता हूँ
फिर भी मैं सोचता रहता हूँ--
कोई ऐसा ग्रीटिंग कार्ड हो
जो उत्सवों पर नहीं,
अकेलेपन या उदासी के बेरौनक अवसरों पर
लम्बी यात्राएँ कर
तुम तक ख़ुद जा पहुँचे ।
साक्षी हो जाए जो मेरे अपनेपन का
अन्तरंग साथी हो मन के सूनेपन का
ऐसा ग्रीटिंग कार्ड जिसमें
सौहार्द का स्पर्श, आत्मीयता की गंध हो
दिखावट से मुक्त जो
स्वतंत्र-स्वच्छंद हो
ऐसा ग्रीटिंग कार्ड जो तुम्हें सचमुच पसंद हो !
दुकान में जाता हूँ, तो कितने ही रंगों का
ठहरा हुआ समंदर
फैला होता है काउंटर पर ।
दुकानदार कहता है -"कोई भी चुन लीजिये, साहब,
हमारे पास हर तरह के कार्ड हैं ।
इन कार्डों पर हँसाने-गुदगुदाने वाले कार्टून हैं ।
उन पर उतरे हुए शिमला, मसूरी, देहरादून हैं ।
कुछ पर नावें, चिड़ियाँ, फूल,
साँझ का उदास वातावरण है ।
कुछ में जंगल, बादल व निर्झर की कल-कल का चित्रण है ।
कई मिलन-दृश्य हैं प्रेमी-युगलों के सिलुएट में
कोलाज या क्यूबिक आर्ट के कार्ड हैं इस पैकेट में ।
इन कार्डों पर हँसते-मुस्काते नन्हे-मुन्नों के चित्र हैं ।
उन को पा कर खुश होंगे, अविवाहित जो मित्र हैं !
ये पेंटिंग्स बनाई हैं बच्चों ने
अपने नाज़ुक हाथों से...."
परेशान-सा हूँ मैं दुकानदार की बातों से ।
सोचता हूँ, तुम्हें कैसे ग्रीटिंग कार्ड पसंद हैं ?
क्या तुम्हें भी ऐसे ग्रीटिंग कार्ड पसंद हैं
जो वर्ष में तीन-चार गिने-चुने अवसरों के
कृत्रिम औचित्य के दायरे में बंद हैं ?
दुकानदार से नहीं कहता हूँ
फिर भी मैं सोचता रहता हूँ--
कोई ऐसा ग्रीटिंग कार्ड हो
जो उत्सवों पर नहीं,
अकेलेपन या उदासी के बेरौनक अवसरों पर
लम्बी यात्राएँ कर
तुम तक ख़ुद जा पहुँचे ।
साक्षी हो जाए जो मेरे अपनेपन का
अन्तरंग साथी हो मन के सूनेपन का
ऐसा ग्रीटिंग कार्ड जिसमें
सौहार्द का स्पर्श, आत्मीयता की गंध हो
दिखावट से मुक्त जो
स्वतंत्र-स्वच्छंद हो
ऐसा ग्रीटिंग कार्ड जो तुम्हें सचमुच पसंद हो !
शुक्रवार, 16 अक्तूबर 2009
आपस का हो प्रेम...
आपस का हो प्रेम जहाँ पर
मिलता है उल्लास वहीं ।
दीप जहाँ भी रख दोगे तुम
होगा स्वयं उजास वहीं ।
पूजन से प्रसन्न हो कर
आएँगी लक्ष्मी, मगर सुनो--
नारायण का वास जहाँ है
लक्ष्मी करती वास वहीं ।
मिलता है उल्लास वहीं ।
दीप जहाँ भी रख दोगे तुम
होगा स्वयं उजास वहीं ।
पूजन से प्रसन्न हो कर
आएँगी लक्ष्मी, मगर सुनो--
नारायण का वास जहाँ है
लक्ष्मी करती वास वहीं ।
सोमवार, 12 अक्तूबर 2009
आसमान की सैर
आसमान की सैर करेंगे ।
लन्दन औ' पेरिस जाना तो
बात पुरानी लगती है ।
अमरीका की धरती भी
जानी-पहचानी लगती है ।
अब तो किसी नयी दुनिया की
सैर हमारे पैर करेंगे ।
इस धरती पर रहते-रहते
कर ली है भरपेट लड़ाई ।
रॉकेट में जाने से पहले
आओ, हाथ मिला लो, भाई ।
चलो, कसम खाते हैं, अब हम
नहीं किसी से वैर करेंगे ।
आसमान की सैर करेंगे !
लन्दन औ' पेरिस जाना तो
बात पुरानी लगती है ।
अमरीका की धरती भी
जानी-पहचानी लगती है ।
अब तो किसी नयी दुनिया की
सैर हमारे पैर करेंगे ।
इस धरती पर रहते-रहते
कर ली है भरपेट लड़ाई ।
रॉकेट में जाने से पहले
आओ, हाथ मिला लो, भाई ।
चलो, कसम खाते हैं, अब हम
नहीं किसी से वैर करेंगे ।
आसमान की सैर करेंगे !
सोमवार, 5 अक्तूबर 2009
आदरणीय चोर
पहले चोर जादू नहीं जानते थे
सेंध लगाने की पूरी मशक्कत
मजबूरन उन्हें करनी पड़ती थी ।
हमारी अनुपस्थिति में वे आते थे
या हम सो रहे होते थे
तभी वे अपना कार्यक्रम बनाते थे ।
जब हम जाग जाया करते,
तो वे भाग जाया करते थे ।
अब हम देख रहे होते हैं
और वे हमसे हँसते-बतियाते
खुल कर हम को लतियाते हैं
चोर बिल्कुल नहीं कहलाते हैं ।
हम कसम खा कर कहते हैं
कि ये आदरणीय हैं
ये जो हमारे घर में बैठ कर
फैलते-पसरते हैं
ये जो भी करते हैं
उसमें बिल्कुल नहीं डरते हैं ।
देखो देखो कैसे सामान समेटा है
वाह-वाह क्या खूब
गठरी में बाँधने से पहले लपेटा है ।
अब चोर जादूगर होते हैं
तभी तो हम
समझदारी के नाम पर
उनकी दी हुई भ्रांतियों को ढोते हैं !
सेंध लगाने की पूरी मशक्कत
मजबूरन उन्हें करनी पड़ती थी ।
हमारी अनुपस्थिति में वे आते थे
या हम सो रहे होते थे
तभी वे अपना कार्यक्रम बनाते थे ।
जब हम जाग जाया करते,
तो वे भाग जाया करते थे ।
अब हम देख रहे होते हैं
और वे हमसे हँसते-बतियाते
खुल कर हम को लतियाते हैं
चोर बिल्कुल नहीं कहलाते हैं ।
हम कसम खा कर कहते हैं
कि ये आदरणीय हैं
ये जो हमारे घर में बैठ कर
फैलते-पसरते हैं
ये जो भी करते हैं
उसमें बिल्कुल नहीं डरते हैं ।
देखो देखो कैसे सामान समेटा है
वाह-वाह क्या खूब
गठरी में बाँधने से पहले लपेटा है ।
अब चोर जादूगर होते हैं
तभी तो हम
समझदारी के नाम पर
उनकी दी हुई भ्रांतियों को ढोते हैं !
शुक्रवार, 2 अक्तूबर 2009
जय जवान जय किसान ...?
जान लेना देश के हर शत्रु की, फिर जान देना
है जवानी का यही अंदाज़ अपने देश में ।
कृषक अपनी जान लेने को विवश हैं, बोलिए---
किसे अपने देश पर है नाज़ अपने देश में ?
है जवानी का यही अंदाज़ अपने देश में ।
कृषक अपनी जान लेने को विवश हैं, बोलिए---
किसे अपने देश पर है नाज़ अपने देश में ?
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