गुरुवार, 29 अक्टूबर 2009

चमक-दमक

बाज़ारों में चमक-दमक है ।
जिधर देखिये बस रौनक है ।

नए-नए चैनल टी वी पर
हर पल रहे बदल टी वी पर ।

हर दफ्तर में मेज़ के ऊपर
रक्खा रहता है कम्प्यूटर ।

पहले तो होती थी फाइल
हाथों में अब है मोबाइल ।

बिजली की तारें ज़्यादा हैं ।
सड़कों पर कारें ज़्यादा हैं ।

पीं पीं पीं पीं पों पों पों है ।
हर कोई जल्दी में क्यों है ?

रविवार, 25 अक्टूबर 2009

मरीचिका

रेलगाड़ी अभी नहीं आयी थी । उमस बढती जा रही थी । गरमी में पसीने की चिपचिपाहट से सबके बदन भीग गए थे । कितने ही होंठ पपडाए हुए थे । लोहे की जाली वाली खिड़की के ऊपर तीन भाषाओँ में लिखा था-- 'शीतल जल' । खिड़की के सामने लोगों को पंक्तिबद्ध रखने के लिए मज़बूत पाइप लगे थे ।
पानी नहीं मिल रहा था । लोग शिकायत के लहजे में बातें कर रहे थे । एक युवक दो बार स्टेशन मास्टर के कमरे में झाँक आया था । उसने अपनी नोटबुक में से कागज़ फाडा । पानी न मिलने की शिकायत उस पर लिखी । सधे हुए क़दमों से वह शिकायत-पेटिका की ओर बढा ।
'ऊ....ई ...!' दर्द से चिल्लाते हुए युवक ने अपना हाथ शिकायत-पेटिका के जबड़ों में से वापिस खींच लिया । शिकायत वाला कागज़ नीचे गिर गया । पीली-पीली बर्रों का झुंड पेटिका में से निकल कर मँडराने लगा ।
'शीतल जल' वाली खिड़की के आगे से भीड़ छँटने लगी थी । नकली शीतल पेय बेचने वाले स्टाल पर भीड़ बढने लगी थी ।

मंगलवार, 20 अक्टूबर 2009

असली बात

असली बात तो इन्सानी तकलीफ़ों की है ।
तकलीफ़ों की सूरत, देखो,
कैसी मिलती-जुलती-सी है ।
जैसी तेरे आसपास हैं
वैसी ही दुखदायी स्थितियाँ
मुझको कर जाती उदास हैं ।
यूँ ही अकेला कर जाती हैं
हम सब को पीड़ाएं
लेकिन
यह भी क्या संताप नहीं है ?
दुख-दर्दों में टूट-टूट कर
अलग पड़े रहना ही
आख़िर क्यों हमको लाजिम लगता है ?
जुड़ भी तो सकते हैं हम-तुम
उन दुख-दर्दों में फँस कर
जो साँझे हैं, मिलते-जुलते हैं ।
मुमकिन है, तकलीफें फिर भी
ख़त्म नहीं हों ।
पर मुमकिन है
उनको ख़त्म किए जाने की
कोई राह निकल ही आए !

असली बात नहीं
दुख-दर्दों तकलीफ़ों की;
असली बात हमारे
दुख में मिल-जुल कर
रहने की भी है !

शनिवार, 17 अक्टूबर 2009

ग्रीटिंग कार्ड

तुम्हें कैसे ग्रीटिंग कार्ड पसंद हैं ?

दुकान में जाता हूँ, तो कितने ही रंगों का
ठहरा हुआ समंदर
फैला होता है काउंटर पर ।
दुकानदार कहता है -"कोई भी चुन लीजिये, साहब,
हमारे पास हर तरह के कार्ड हैं ।
इन कार्डों पर हँसाने-गुदगुदाने वाले कार्टून हैं ।
उन पर उतरे हुए शिमला, मसूरी, देहरादून हैं ।
कुछ पर नावें, चिड़ियाँ, फूल,
साँझ का उदास वातावरण है ।
कुछ में जंगल, बादल व निर्झर की कल-कल का चित्रण है ।
कई मिलन-दृश्य हैं प्रेमी-युगलों के सिलुएट में
कोलाज या क्यूबिक आर्ट के कार्ड हैं इस पैकेट में ।
इन कार्डों पर हँसते-मुस्काते नन्हे-मुन्नों के चित्र हैं ।
उन को पा कर खुश होंगे, अविवाहित जो मित्र हैं !
ये पेंटिंग्स बनाई हैं बच्चों ने
अपने नाज़ुक हाथों से...."
परेशान-सा हूँ मैं दुकानदार की बातों से ।
सोचता हूँ, तुम्हें कैसे ग्रीटिंग कार्ड पसंद हैं ?

क्या तुम्हें भी ऐसे ग्रीटिंग कार्ड पसंद हैं
जो वर्ष में तीन-चार गिने-चुने अवसरों के
कृत्रिम औचित्य के दायरे में बंद हैं ?
दुकानदार से नहीं कहता हूँ
फिर भी मैं सोचता रहता हूँ--
कोई ऐसा ग्रीटिंग कार्ड हो
जो उत्सवों पर नहीं,
अकेलेपन या उदासी के बेरौनक अवसरों पर
लम्बी यात्राएँ कर
तुम तक ख़ुद जा पहुँचे ।
साक्षी हो जाए जो मेरे अपनेपन का
अन्तरंग साथी हो मन के सूनेपन का
ऐसा ग्रीटिंग कार्ड जिसमें
सौहार्द का स्पर्श, आत्मीयता की गंध हो
दिखावट से मुक्त जो
स्वतंत्र-स्वच्छंद हो
ऐसा ग्रीटिंग कार्ड जो तुम्हें सचमुच पसंद हो !

शुक्रवार, 16 अक्टूबर 2009

आपस का हो प्रेम...

आपस का हो प्रेम जहाँ पर

मिलता है उल्लास वहीं ।

दीप जहाँ भी रख दोगे तुम

होगा स्वयं उजास वहीं ।

पूजन से प्रसन्न हो कर

आएँगी लक्ष्मी, मगर सुनो--

नारायण का वास जहाँ है

लक्ष्मी करती वास वहीं ।

सोमवार, 12 अक्टूबर 2009

आसमान की सैर

आसमान की सैर करेंगे ।

लन्दन औ' पेरिस जाना तो
बात पुरानी लगती है ।
अमरीका की धरती भी
जानी-पहचानी लगती है ।

अब तो किसी नयी दुनिया की
सैर हमारे पैर करेंगे ।

इस धरती पर रहते-रहते
कर ली है भरपेट लड़ाई ।
रॉकेट में जाने से पहले
आओ, हाथ मिला लो, भाई ।

चलो, कसम खाते हैं, अब हम
नहीं किसी से वैर करेंगे ।
आसमान की सैर करेंगे !

सोमवार, 5 अक्टूबर 2009

आदरणीय चोर

पहले चोर जादू नहीं जानते थे
सेंध लगाने की पूरी मशक्कत
मजबूरन उन्हें करनी पड़ती थी ।
हमारी अनुपस्थिति में वे आते थे
या हम सो रहे होते थे
तभी वे अपना कार्यक्रम बनाते थे ।
जब हम जाग जाया करते,
तो वे भाग जाया करते थे ।
अब हम देख रहे होते हैं
और वे हमसे हँसते-बतियाते
खुल कर हम को लतियाते हैं
चोर बिल्कुल नहीं कहलाते हैं ।
हम कसम खा कर कहते हैं
कि ये आदरणीय हैं
ये जो हमारे घर में बैठ कर
फैलते-पसरते हैं
ये जो भी करते हैं
उसमें बिल्कुल नहीं डरते हैं ।

देखो देखो कैसे सामान समेटा है
वाह-वाह क्या खूब
गठरी में बाँधने से पहले लपेटा है ।

अब चोर जादूगर होते हैं
तभी तो हम
समझदारी के नाम पर
उनकी दी हुई भ्रांतियों को ढोते हैं !

शुक्रवार, 2 अक्टूबर 2009

जय जवान जय किसान ...?

जान लेना देश के हर शत्रु की, फिर जान देना

है जवानी का यही अंदाज़ अपने देश में ।

कृषक अपनी जान लेने को विवश हैं, बोलिए---

किसे अपने देश पर है नाज़ अपने देश में ?