रविवार, 1 नवंबर 2009

शुरू नवम्बर की धूप

धूप को आजकल न जाने क्या हो गया है !
उनींदी, अलसायी, आरामतलब-सी
निर्लिप्त भाव से पड़ी रहती है
आँगन के कोने में
दिन भर बिछी रहती है लॉन में
फिर भी महसूस नहीं होती
आती है दबे पाँव
झिझकती-सी
मैं इसे प्रायः देखता हूँ
दीवारों की अनदेखी सीढियाँ चढ़ते-चढ़ते
यह थक कर हाँफने लगती है
झुर्रियों की सर्पांकित रेखाएँ
अपना ज़हरीला असर
दिखलाती हैं
इसके चेहरे पर दिन-भर

रोज़ सुबह मैं लॉन के कोने में
कुर्सी डाल कर बैठ जाता हूँ
सोचता हूँ--
धूप आएगी
तो कुर्सी की पीठ पर सिर टिका कर
उसे अपने चेहरे के पोर-पोर में
सोख लूँगा
उसकी सुखद गर्माहट से
देह को ढाँप लूँगा
उसके अपनत्व भरे हाथों का स्पर्श
अपनी त्वचा में समो लूँगा, संजो लूँगा
संग उसके कुछ ठिठोली कर
सभी संकोच की परतें हटाऊंगा
बुलाऊंगा उसे, गपशप चलेगी
फिर बड़े शालीन लेकिन सहृदय वातावरण में
मैं उसे दीवार या छत तक विदा कर लौट आऊंगा

पर ऐसा कभी नहीं होता
लगता है --
धूप की जीवनी-शक्ति चुक गयी है
उत्साह-हीन हो गयी है वह
चेहरे से लगती है बीमार-सी
इतनी जल्दी ऐसी हो जायेगी धूप--
कभी सोचा भी नहीं था

धूप को आजकल न जाने क्या हो गया है !

2 टिप्‍पणियां:

Manu ने कहा…

उनींदी, अलसायी, आरामतलब-सी
निर्लिप्त भाव से पड़ी रहती है
आँगन के कोने में
दिन भर बिछी रहती है लॉन में
फिर भी महसूस नहीं होती
आती है दबे पाँव
झिझकती-सी
मैं इसे प्रायः देखता हूँ
दीवारों की अनदेखी सीढियाँ चढ़ते-चढ़ते
यह थक कर हाँफने लगती है

Kya khoob likha hai Sir! Abhi tak (kavita padhne ke baad bhi) 'alsaai' dhoop ko kone me pada dekh rahi hun

Manu ने कहा…

रोज़ सुबह मैं लॉन के कोने में
कुर्सी डाल कर बैठ जाता हूँ
सोचता हूँ--
धूप आएगी
तो कुर्सी की पीठ पर सिर टिका कर
उसे अपने चेहरे के पोर-पोर में
सोख लूँ...

फिर बड़े शालीन लेकिन सहृदय वातावरण में
मैं उसे दीवार या छत तक विदा कर लौट आऊंगा

Wah !
Sir mera bas chale to is kavita ki har pankti par kuch kahun. Majaa aa gaya padh kar.