फिर फुहारें लौट आयी हैं मेरी दहलीज़ पर
फिर हवाएँ दे रही हैं दस्तकें इस द्वार पर
फिर फ़ज़ाओं में घुली हैं गंध माटी की, मगर--
तुम नहीं हो पास तो सब व्यर्थ हैं ।
गुनगुनाती छेड़ती बूँदें टपकती हैं इधर
पेड़ सारे सरसराते ही रहे हैं रात भर
बिजलियों ने गगन के ऊपर किये हस्ताक्षर
इस लिखावट का भला क्या अर्थ हैं ?
4 टिप्पणियां:
सही है ..
bahut bahut sahi hai...
shukriya
The question at the end gives the poem its punch. I am reminded of a couplet(I can't recall the name of the poet):
सैय्याद बात इतनी सी मद्देनज़र रहे
बिजली कहाँ गिरेगी मेरे आशियाँ के बाद ?
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