मैंने दस साल पहले एक कविता लिखी थी । उस लम्बी कविता के कुछ अंश यहाँ प्रस्तुत हैं :
ऐसा है जीवट मानो उट्ठे आग की लपट
मान देश का अमोल, ज़िन्दगी का दाम क्या है ?
देश-प्रेम की लगन में बदन सौंप दिया
उनको मालूम नहीं ऐश क्या आराम क्या है ?
छीनने को हक सिखलाने को सबक चले
शत्रु जान ले कि शत्रुता का अंजाम क्या है ?
देश के युवक बेधड़क यही पूछते हैं--
"टाइगर चोटियों पे गीदडों का काम क्या है ?
कायल हुए हैं सभी उनकी बहादुरी के दुनिया में नाम अपना भी मशहूर किया .
खेल तो नहीं था वार झेल के धकेल देना डाल दी नकेल लौटने को मजबूर किया .
खतरा टला है खुशहालियों की आहटें हैं उनकी निडरता ने खतरा ये दूर किया .
दुश्मनों के सारे ही इरादे धुल चाट रहे उनका घमंड खंड-खंड चूर-चूर किया .
एक बार फिर से तिरंगा फहराया वहां शत्रु सेना हारी और हार भी करारी है .
सारे नर-नारी है आभारी आज सैनिकों के देशवासियों के कुछ करने की बारी है .
भारत की भूमि हमें प्यारी है तो क्यों यहाँ पे आपसी लड़ाई है बीमारी है बेकारी है ?
सरहदों पे एक जंग ख़त्म हो गयी मगर भीतरी बुराइयों से जंग अभी जारी है !
2 टिप्पणियां:
bahut hi sahi likha hai .....sab jang khatam ho bhi jaye to andar ka nahi hota hai ......bahut hi sundar badhaai ..
बहुत बढ़िया.
अमर शहीदों को नमन.
एक टिप्पणी भेजें