रविवार, 29 मार्च 2009

आम

बोलो, आम किस तरह खाएँ ?


अगर चूसने लगें इन्हें तो

बह निकलेगी रस की धारा।

दाग़ लगे कपड़ों पर तो चढ़

जाता है मम्मी का पारा।


यही सोचते रहते हैं हम

कपड़ों को किस तरह बचाएँ ?


अगर काट लें चाकू से तो

शायद मुश्किल हल हो जाए।

मगर अटक जायेगी गुठली

कौन चूस कर उसको खाए ?


आम सामने हैं लेकिन हम

देख रहे हैं दायें-बाएँ।


बोलो, आम किस तरह खाएँ ?



शुक्रवार, 27 मार्च 2009

बाल-कविताओं की ज़रूरत

अपने बचपन की ओर मुड़ कर देखता हूँ, तो एक अनुभव विशेष रूप से आनंददायक, गहन और चेतना को सुसंपन्न करने वाला प्रतीत होता है। वह है कविताएँ पढ़ने, सुनने, गुनगुनाने, प्रस्तुत करने तथा उनके विविध रंगों की फुहार से अपने आप को पूरी तरह भिगो लेने का अनुभव। जीवन की ऊर्जा ऊष्मा से ओतप्रोत इस अनुभव ने ही उच्चादर्शों उदात्त मूल्यों के साथ प्रतिबद्धता के संस्कार दिये और भाषा, छंद, यति-गति की सहज-स्वाभाविक पहचान भी दी। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि रस-रंग-ध्वनि-गंध-स्पर्श के माध्यम से संजोये गए अनुभवों के संसार के समानांतर रोज़मर्रा की ज़िन्दगी की तथाकथित छोटी-छोटी बातों के प्रति कौतुक, उत्साह, कौतूहल, जिज्ञासा, विस्मय आदि बालसुलभ अनुभूतियों का एक बेहद निजी संसार होता है, जो बचपन की उन कविताओं से संपृक्त हो कर आज भी स्मृतियों में बसा हुआ है।
निस्संदेह आज की दुनिया दो दशक पहले की दुनिया से बिलकुल भिन्न है। सॅटॅलाइट केबल टेलिविज़न, कम्प्यूटर, मोबाइल इंटरनेट के मध्य पले-बढ़े बच्चे, चौबीस घंटे विज्ञापनों, कार्टून फिल्मों, रंग-बिरंगी लुभावनी उपभोक्ता सामग्री से घिरे रहने वाले बच्चे वैसे हो भी नहीं सकते, जैसे नब्बे के दशक से पहले वाले बच्चे थे। जानकारी का दायरा बढ़ गया है; ध्यान पहले से कम केन्द्रित हो पाता है; भोलापन और मासूमियत घटते जा रहे हैं; तथ्य-विचार, यथार्थ-कल्पना परस्पर गड्ड-मड्ड होने लगे हैं। लेकिन नयी पीढ़ी के बच्चों के लिए कविताओं की ज़रूरत, आप विश्वास करें, अब और भी ज़्यादा है। उन्हें हम अच्छी कविताएँ नहीं देंगे, तो बाजारूपन और उपभोक्तावाद की मानसिकता से ग्रस्त अथवा हिंसा, भ्रष्टाचरण, एवं कट्टरपंथ के संवाहक तत्त्व तथा भाषा के संस्कारों को विकृत करने वाली शक्तियां -- ये सब अपने-अपने कुत्सित इरादों में सहज ही कामयाब हो जायेंगे। इस मायने में बच्चों के लिए अच्छी कविताओं का सृजन पर्यावरण को प्रदूषण रहित बनाने के कार्य जैसा ही सार्थक और महत्त्वपूर्ण है।
बाल-कविताएँ 'बच्चों के लिए' हैं, मात्र इसलिए लय -ध्वनि-भाषा-छंद-मुहावरे आदि के बारे में मानकों स्तर को लेकर हमें समझौता नहीं करना चाहिए। बल्कि कविताएँ ऐसी हों, जो छंदों की विविधता, सरल रोचक शब्द-चयन, मुहावरों के सटीक प्रयोग, ध्वनियों-शब्दों की चमत्कारपूर्ण आवृत्तियों, शब्द-विन्यास के सही स्वरूप आदि की दृष्टि से हिन्दी का व्यावहारिक ज्ञान भी स्वतः करवा दें।

बुधवार, 25 मार्च 2009

शुक्र है

शुक्र है कि बच्चे अभी लड़ते हैं
वे ख़ूब गुस्सा करते हैं
आपस में ही नहीं, माँ-बाप से भी
दूसरों से ही नहीं, अपने आप से भी
उन्हें गुस्सा आता है
अन्दर से निकलता है
चेहरे पर बिखर जाता है
आँखों में हाथों में साफ़ दिख जाता है
कितनी ख़ुशी की बात है
कि हमारे नन्हे-मुन्ने
नहीं होते हमारी तरह
समझौतापरस्त
शातिर काइयाँ और घुन्ने !

रविवार, 22 मार्च 2009

मार्च-अप्रैल की मुकरियां

१.
मार्च में आये, खूब सताये
शाम ढले वह राग सुनाये
रात चिकोटी काटे डट कर

क्यों सखि, साजन ? ना सखि, मच्छर !
२.
फिर उसको लाया अप्रैल
अबके और गया है फैल
बच्चों के तन-मन को कसता

क्यों सखि, साजन ? ना सखि, बस्ता !

गुरुवार, 19 मार्च 2009

आखिर ऐसा क्यों ?

रहस्योदघाटन मुझे प्यारे लगते हैं।
उनके बारे में कुछ किये बगैर
मैं बस उन्हें चाट जाना चाहता हूँ।

आखिर ऐसा क्यों चाहता हूँ मैं
कि नित नयी पोलें खुलें
नित नए भांडे फूटें
नित नए परदे फाश हों?

क्यों टटोलता हूँ अख़बार के पन्नों को
नयी पोलें खुलने की लालसा के साथ?

वैसे कितनी ही ऐसी शर्मनाक बातें हैं
जिन्हें शहर का बच्चा-बच्चा जानता है
वे पुरानी पोलें हैं जो पहले ही खुली हैं।

उनके बारे में भी मैं कुछ नहीं करता।
सवाल तो यह है कि मैं कुछ करना भी चाहता हूँ क्या?

या फिर बिल्ली की तरह
लपालप लपालप
दूध-मलाई चाटना ही मुझे अच्छा लगता है
ताकि अपनी लसलसी जीभ
को मूंछों पर फेरता रह सकूं!

सोमवार, 16 मार्च 2009

बात करती है नज़र....

बात करती है नज़र, होंठ हमारे चुप हैं ।
यानी तूफ़ान तो भीतर है, किनारे चुप हैं ।

ऐसा लगता है अभी बोल उठेंगे हँस कर
मंद मुस्कान लिए चाँद-सितारे चुप हैं ।

उनकी खामोशी का कारण था प्रलोभन कोई
और हम समझे कि वो खौफ़ के मारे चुप हैं ।

बोलना भी है ज़रूरी सांस लेने की तरह
उनको मालूम तो है फिर भी बेचारे चुप हैं।

भोर की वेला में जंगल में परिंदे लाखों,
है कोई ख़ास वजह सारे के सारे चुप हैं।

जो हुआ, औरों ने औरों से किया, हमको क्या ?
इक यही सबको भरम जिसके सहारे चुप हैं ।

गुरुवार, 12 मार्च 2009

काश !

सूखी मात्र त्वचा होती, ज़िन्दगी नहीं
और छेद बस दांतों में बनते, बाबा !
अच्छा होता, अगर हमारे जीवन में
दाग़ सिर्फ़ कपड़ों पर ही लगते, बाबा !

मंगलवार, 10 मार्च 2009

नारी है या....?

चकाचौंध विज्ञापन की
साबुन-क्रीम प्रसाधन की
देखी, तो 'दधीचि' बोले--
"कोई तो रहस्य खोले,
सदा स्नान-रत आधुनिका
नारी है या सिर्फ़ त्वचा ?"

रविवार, 8 मार्च 2009

खिलते हैं फूल

फागुनी हवाओं की जो रुनझुन धुन सुनी
खिलते हैं फूल, भँवरे भी मंडराते हैं
अब के बरस भँवरे तो परे जा रहे हैं
रूठते हैं और फूल उनको मनाते हैं
चुन-चुन बुनते हैं मीठे-मीठे सपने-से
उनके कानों में गीत नए-नए गाते हैं--
"अच्छा है शगुन, सुन, गुन-गुन मत कर,
आजा एक सांझा सरकार हम बनाते हैं !"

शुक्रवार, 6 मार्च 2009

घटनाओं से इतर चीज़ें

घटनाओं से इतर जो चीज़ें हैं
उनके लिए स्थान और समय
तय कर पाना संभव नहीं रहा।
घटनाएँ हर जगह दनादन घुसी आती हैं
घटनाओं से इतर चीज़ें
सन्न रह जाती हैं।
घटनाएँ खुल कर घटती हैं
और घटनाओं से इतर चीज़ें
घटती चली जाती हैं
मिटने लग जाती हैं।
ऐसी सब चीज़ें अखबारों से बाहर हैं
टी वी से बेघर हैं।
घर में बाज़ारों में
सड़कों-चौराहों पर
कोनों में दुबकी हैं
घटनाओं से इतर चीज़ें।
ये सारी चीज़ें यदि गुम भी हो जायेंगी
तो भी अखबारों में स्थान नहीं पाएंगी।
ऐसा हो जाने पर
हर ओर केवल
घटनाएँ रह जायेंगी!

बुधवार, 4 मार्च 2009

अपराधी

पार्क में पेड़ प्रतीक्षा कर रहे हैं और पौधे बालकों की तरह ठुनक रहे हैं। इन दिनों पेड़ पौधों को तीखी भूख लगने से पूर्व ही, पूर्व दिशा से उभर कर आने वाली सुनहरी थाली सामने जाती है। फिर भी उन्हें आहार की प्रतीक्षा तो रहती है। इधर निकुंज बाबू अपने घर से निकल पड़े हैं। सुबह सवेरे घर के भीतर बैठे रहने से उन्हें भी पौधों जैसी ही बेचैनी होने लगती है। उन्हें अपने बीच पा कर पेड़- पौधे आश्वस्त होते हैं। उनका आहार उन्हें मिलता है तो वे खिलखिलाते हैंइन दिनों यानि मार्च-अप्रैल में वे खूब खिलखिलाते हैं। निकुंज बाबू अपने नितांत निजी संसार में पहुंचे हैं। गिलहरियाँ, चिड़ियाँ, तोते, गुलाब, गेंदा और ऐसे अनेक फूल और परिंदे जिनके नाम उन्हें मालूम नहीं हैं - इन सब के बीच इन के साथ अपने विशेष रिश्ते का एहसास उनका भी संबल है। उसी तरह जैसे बालकों-से ठुनकने वाले पौधों को रोज़ सुबह उनका इंतजार रहता है।
निकुंज बाबू के दिन की इस शुरुआत से ऐसा समझें कि यह वरिष्ठ नागरिक दुनिया की सच्चाइयों से बेखबर रहता होगा। बल्कि उनकी दिनचर्या का अगला कदम अख़बार पढ़ना ही है। बहरहाल, अप्रैल के जिस दिन का हम ज़िक्र कर रहे हैं, वह और दिनों कि अपेक्षा कुछ ज़्यादा ही यादें लेकर आया है। उस ज़माने की यादें जब उनकी ज़िन्दगी घटनाओं और एक्शन से भरपूर थी। अब यह भी उन्हें याद नहीं रहा कि स्मृतियों की इस बरसात की पहली बूँद ने कैसे उन्हें छुआ था। दिमाग़ पर थोड़ा ज़ोर दे कर सोचा तो उन्हें याद आया कि अख़बार पर तारीख पढ़ते हुए उनकी यादों में जीवन के वसंत का वह दिन लौट आया जब वे स्कूल में पढ़ते थे। उनकी कक्षा में गरिमा नाम की एक लड़की थी, जिसका नाम बताने का वैसे कोई मतलब नहीं, क्योंकि इस नाम से उन्होंने उसे कभी बुलाया ही नहीं। वे तो हमेशा उसे 'मोटी' ही पुकारते थे। ऐसे नामों के लिए कोई तर्क हो भी सकता है, पर अक्सर ये यूँ ही व्यक्तित्व को परिभाषित-सा करने वाले चिढ़ाने के निश्चित तरीके के रूप में इस्तेमाल होते हैं। गरिमा इस नाम से ख़ास तौर पर इसीलिए चिढ़ती भी थी।
एक बार उसने निकुंज से एक किताब मांग कर ली। तीन दिन बाद जब पुस्तक वापस आयी, तो भीतर के मुखपृष्ठ पर छपे हुए कुछ अक्षरों के नीचे पेंसिल से लिखी कुछ संख्याओं पर निकुंज की नज़र पड़ी। एक से चौदह तक। यह कोई संकेत या संदेश था। संख्याओं के क्रम से उसने अक्षरों को जोड़ा। संदेश अंग्रेज़ी में धन्यवाद का था, यानी टी-एच--एन-के-एस-टी--एन-आई-के-यू-एन-जे, 'निकुंज को धन्यवाद' इसके लगभग दो सप्ताह बाद की बात है। निकुंज ने नोट-बुक में एक पृष्ठ खोल कर गरिमा की ओर वह नोट-बुक बढाई। "क्या है?" उसने पूछा। "ख़ुद देख लो। आज मैं तुम्हारी बुद्धि की परीक्षा के लिए एक नया रोचक खेल लाया हूँ।" गरिमा ने देखा - सामने पृष्ठ पर कुछ खाली वर्गाकार आकृतियाँ कतार में बनी हुई थीं और उन रिक्त स्थानों के ऊपर अलग-अलग संख्याएँ लिखी हुई थीं---१६-१८--१२--१५-१५-१२। तर्कहीन, बिना किसी क्रम के। निकुंज ने अनुभव किया कि थोडी उत्सुकता जाग रही है, तो आगे बोला, " इन रिक्त स्थानों को भर सको, तो तुम्हें पता चल जाएगा कि मैं तुम्हें क्या बनाना चाहता हूँ।" फिर दो क्षण रुक कर बोला, " तुम्हारी मदद के लिए एक संकेत दूं?" इस तरह चुनौती के बाद प्रलोभन भी प्रस्तुत कर दिया। कुछ देर सोचने के बाद गरिमा ने पूछा, " हाँ, बताओ। बस, संकेत करना; उत्तर मत बताना।" " देखो, इसका तरीका कुछ-कुछ वैसा ही है, जैसा तुमने मेरी इंग्लिश की रीडर के टाइटल पेज पर अपनाया था।" फिर थोड़ा रुक कर उसने जोड़ा, " मैंने तो एकदम इसका उत्तर खोज लिया था।" गरिमा को चिढाने के लिए इतना काफी था। आज निकुंज इतना सचेत था कि उसे 'मोटी' कह कर बुलाने से बच रहा था। लेकिन इस बात पर गरिमा का ध्यान ही नहीं गया। पेंसिल लेकर वह खाली स्थान भरने में जुट गई। तरीका सीधा-सादा था--'एक' के लिए '', 'दो' के लिए 'बी', 'तीन' के लिए 'सी' और इसी तरह 'छब्बीस' के लिए 'ज़ेड' इस तरह अक्षर भरने थे। इस बीच निकुंज ने कहा कि इन वर्गों को क्रम से भरना ज़रूरी नहीं है, तो गरिमा का काम और भी आसान हो गया। लेकिन एक बार सारे अक्षर भरने के बाद उसने जो पढ़ा, तो -पी-आर-आई-एल-ऍफ़---एल यानी 'april fool' पढ़ते ही वह उसी पेंसिल को हथियार बना कर निकुंज की ओर लपकी, लेकिन वह 'मोटी', 'मोटी' कह कर उसे चिढ़ाता हुआ भागा ज़्यादा दूर नहीं, क्योंकि पीछे मुड़ कर उसे गरिमा का गुस्से से भरा चेहरा, हंसी और नाराज़गी के मिले-जुले भाव व्यक्त करती उसकी आँखें भी तो देखनी थीं।
बात तो छोटी-सी थी, पर निकुंज को उन आँखों में गुस्सा कुछ ज्यादा और हंसी बहुत थोड़ी दिखाई दी। फिर उसने निकुंज को कुछ ऐसा कह दिया, जिसे वह आज तक भूल नहीं पाया है। " यही बनाओगे तुम मुझे! और तुमसे उम्मीद भी क्या की जा सकती है ?" यूँ कहा गया, मानो अपने आप से कहा हो। इसके बाद वह पांच-छः रातों तक ठीक से सो नहीं पाया था। गरिमा की आँखों का वह अचानक बुझा-बुझा भाव और उसकी वह निराशापूर्ण आत्मालाप जैसी टिप्पणी उसके मन को कई दिनों तक पल-पल सालते रहे।
इससे पहले भी एक बार खेल-खेल में उसने कुछ बच्चों के साथ मिल कर एक योजना बनाई थी। दरअसल, रोहित को कचरे के ढेर में लोहे का एक खोल मिला था, जिसके आगे लेंस लगा था। संभवतः किसी वाहन के आगे रोशनी के लिए बनाया गया होगा। बच्चों ने उसे अपनी कल्पना से कैमरा मान लिया। फिर निकुंज ने योजना बनाई, जिसके अनुसार गरिमा को बुला कर वह जादू का कैमरा दिखाया गया। थोड़ी-सी कोशिश से निकुंज ने उसे फोटो खिंचवाने के लिए तैयार कर लिया। वह कुर्सी पर बैठी और रोहित अपने 'कैमरे' के साथ उसके सामने छह फीट की दूरी पर खड़ा हो गया। निकुंज कुर्सी के पीछे था और तीन-चार लड़के-लड़कियां जादू का खेल देखने के लिए मौजूद थे। कैमरे में कुछ क्षण झाँकने के बाद योजना के अनुसार रोहित ने कहा, " गरिमा, तुम ज़रा एक बार खड़ी हो जाओ और कैमरे के लेंस पर नज़र टिकाये रखो। " गरिमा ने निर्देश का पालन किया। " ठीक है," रोहित बोला, " अब तुम इसी तरह लेंस पर नज़र टिकाये हुए बैठ जाओ।" ज्यों ही गरिमा ने बैठना चाहा, धड़ाम से फर्श पर गिरी, क्योंकि कुर्सी निकुंज ने पीछे से चुपचाप खिसका ली थी। फिर तो 'मोटी', 'मोटी' का शोर हुआ और बच्चों ने हँस-हँस कर इस तमाशे का खूब आनंद लिया। उस दिन भी गरिमा ने गुस्से से आँखें तरेर कर निकुंज को देखा था। हँसते-हँसते अचानक वह चुप-सा हो गया था। उन आँखों के दर्द और अपमान के भावों ने उसे तीन-चार रातों तक सोने नहीं दिया
'एप्रिल फूल' वाली घटना के बाद एक और छोटी-सी घटना हुई थी, जो पहले वाली घटनाओं की तरह योजनाबद्ध नहीं थी, बल्कि अचानक हो गयी थी। स्कूल में वार्षिक समारोह की तैयारी पूरी हो चुकी थी और कार्यक्रम की अंतिम रिहर्सल प्राचार्य के सामने प्रस्तुत करने के लिए सब बच्चे तैयार थे। नीली फ्राक और सफ़ेद ब्लाउज में गरिमा खुश थी। टीचर से अनुमति लेकर वह पानी पीने नल की ओर गयी, तो वहां निकुंज खड़ा था। जैसा बच्चे अक्सर करते हैं, पानी पीकर गरिमा ने पानी के छींटे उसके कपडों पर डाल दिए। निकुंज के हाथ में एक फाउंटेन पेन था, जो उसे दो दिन पहले ही उपहार में मिला थाउसने आव देखा ताव, तुंरत प्रतिशोध के लिए नीली स्याही के छींटे गरिमा के कपड़ों पर डाल दिए। बाद में टीचर के बार-बार पूछने और डांटने पर भी उसने निकुंज का नाम नहीं बताया था। पर उसकी आँखों में जो खामोशी और पीड़ा का भाव था, वह इतना मर्मस्पर्शी था कि निकुंज उन आँखों के बिम्ब को महीनों तक मन से हटा नहीं पाया था। उसका किसी काम में मन नहीं लगता था। उस दिन के बाद उसने कभी गरिमा को 'मोटी' नहीं कहा। कहता भी तो कैसे ? गरिमा ने तो उसके बाद उससे कभी बात ही नहीं की।
उस दिन को याद कर के निकुंज बाबू की आँखें सजल हो आयीं। यह अचरज की बात थी। इस घटना को आधी सदी से भी ज्यादा अरसा हो गया था। अगर वह किसी को यह सब सुनाएँ, तो आज उनकी आँखों का सजल होना कोरी भावुकता ही कहलायेगा। पर उनके मन में चुभे हुए कांटे की-सी यह पीड़ा पुरानी पड़ती ही नहीं।
निकुंज बाबू के हाथ में अख़बार अभी तक यूं ही था। इसी पर अप्रैल की तिथि पढने के बाद वे यादों में खो गए थे। अपने आप को ज़रा सँभाल कर उन्होंने अख़बार की ख़बरों पर सायास ध्यान केन्द्रित करना चाहा। तीसरे पृष्ठ पर एक समाचार ने बरबस उनका ध्यान आकृष्ट किया। किसी युवती को राह चलते रोक कर एक युवक ने उसके चेहरे और कपड़ों पर तेजाब डालने का प्रयास किया था। निकुंज बाबू सोच में डूब गए। स्याही और तेजाब में फ़र्क होता है, लेकिन फ़र्क सिर्फ पीड़ा, नुकसान या अपमान का ही नहीं होता। वह तो सब की समझ में ही जाता है। एक और बहुत महीन अंतर भी होता है। कोरी भावुकता से बच कर रहना एक स्थिति है और निहायत संवेदनहीन हो जाना दूसरी स्थिति। व्यवहार में हम दोनों का अंतर नहीं बनाये रख सकते हैं। हमें देखना चाहिए कि हम सजल आँखों वाली भावुकता से बचे रहने की सावधानी में अनजाने ही भीतर से बिलकुल निर्मम और संवेदनारहित तो नहीं होते जा रहे हैं। निकुंज बाबू उस अपराधी युवक की बात फिलहाल नहीं सोच रहे हैं, जिसे अपराधी के रूप में पहचान लिया गया है। वे तो हमारे-आपके जैसे उन लोगों की बात सोच रहे हैं, जो अख़बार से मिली इस सूचना को ग्रहण करेंगे और किसी भी तरह की भावुकता से बच कर रहेंगे।