अपने बचपन की ओर मुड़ कर देखता हूँ, तो एक अनुभव विशेष रूप से आनंददायक, गहन और चेतना को सुसंपन्न करने वाला प्रतीत होता है। वह है कविताएँ पढ़ने, सुनने, गुनगुनाने, प्रस्तुत करने तथा उनके विविध रंगों की फुहार से अपने आप को पूरी तरह भिगो लेने का अनुभव। जीवन की ऊर्जा व ऊष्मा से ओतप्रोत इस अनुभव ने ही उच्चादर्शों व उदात्त मूल्यों के साथ प्रतिबद्धता के संस्कार दिये और भाषा, छंद, यति-गति की सहज-स्वाभाविक पहचान भी दी। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि रस-रंग-ध्वनि-गंध-स्पर्श के माध्यम से संजोये गए अनुभवों के संसार के समानांतर रोज़मर्रा की ज़िन्दगी की तथाकथित छोटी-छोटी बातों के प्रति कौतुक, उत्साह, कौतूहल, जिज्ञासा, विस्मय आदि बालसुलभ अनुभूतियों का एक बेहद निजी संसार होता है, जो बचपन की उन कविताओं से संपृक्त हो कर आज भी स्मृतियों में बसा हुआ है।
निस्संदेह आज की दुनिया दो दशक पहले की दुनिया से बिलकुल भिन्न है। सॅटॅलाइट केबल टेलिविज़न, कम्प्यूटर, मोबाइल व इंटरनेट के मध्य पले-बढ़े बच्चे, चौबीस घंटे विज्ञापनों, कार्टून फिल्मों, रंग-बिरंगी लुभावनी उपभोक्ता सामग्री से घिरे रहने वाले बच्चे वैसे हो भी नहीं सकते, जैसे नब्बे के दशक से पहले वाले बच्चे थे। जानकारी का दायरा बढ़ गया है; ध्यान पहले से कम केन्द्रित हो पाता है; भोलापन और मासूमियत घटते जा रहे हैं; तथ्य-विचार, यथार्थ-कल्पना परस्पर गड्ड-मड्ड होने लगे हैं। लेकिन नयी पीढ़ी के बच्चों के लिए कविताओं की ज़रूरत, आप विश्वास करें, अब और भी ज़्यादा है। उन्हें हम अच्छी कविताएँ नहीं देंगे, तो बाजारूपन और उपभोक्तावाद की मानसिकता से ग्रस्त अथवा हिंसा, भ्रष्टाचरण, एवं कट्टरपंथ के संवाहक तत्त्व तथा भाषा के संस्कारों को विकृत करने वाली शक्तियां -- ये सब अपने-अपने कुत्सित इरादों में सहज ही कामयाब हो जायेंगे। इस मायने में बच्चों के लिए अच्छी कविताओं का सृजन पर्यावरण को प्रदूषण रहित बनाने के कार्य जैसा ही सार्थक और महत्त्वपूर्ण है।
बाल-कविताएँ 'बच्चों के लिए' हैं, मात्र इसलिए लय -ध्वनि-भाषा-छंद-मुहावरे आदि के बारे में मानकों व स्तर को लेकर हमें समझौता नहीं करना चाहिए। बल्कि कविताएँ ऐसी हों, जो छंदों की विविधता, सरल व रोचक शब्द-चयन, मुहावरों के सटीक प्रयोग, ध्वनियों-शब्दों की चमत्कारपूर्ण आवृत्तियों, शब्द-विन्यास के सही स्वरूप आदि की दृष्टि से हिन्दी का व्यावहारिक ज्ञान भी स्वतः करवा दें।
निस्संदेह आज की दुनिया दो दशक पहले की दुनिया से बिलकुल भिन्न है। सॅटॅलाइट केबल टेलिविज़न, कम्प्यूटर, मोबाइल व इंटरनेट के मध्य पले-बढ़े बच्चे, चौबीस घंटे विज्ञापनों, कार्टून फिल्मों, रंग-बिरंगी लुभावनी उपभोक्ता सामग्री से घिरे रहने वाले बच्चे वैसे हो भी नहीं सकते, जैसे नब्बे के दशक से पहले वाले बच्चे थे। जानकारी का दायरा बढ़ गया है; ध्यान पहले से कम केन्द्रित हो पाता है; भोलापन और मासूमियत घटते जा रहे हैं; तथ्य-विचार, यथार्थ-कल्पना परस्पर गड्ड-मड्ड होने लगे हैं। लेकिन नयी पीढ़ी के बच्चों के लिए कविताओं की ज़रूरत, आप विश्वास करें, अब और भी ज़्यादा है। उन्हें हम अच्छी कविताएँ नहीं देंगे, तो बाजारूपन और उपभोक्तावाद की मानसिकता से ग्रस्त अथवा हिंसा, भ्रष्टाचरण, एवं कट्टरपंथ के संवाहक तत्त्व तथा भाषा के संस्कारों को विकृत करने वाली शक्तियां -- ये सब अपने-अपने कुत्सित इरादों में सहज ही कामयाब हो जायेंगे। इस मायने में बच्चों के लिए अच्छी कविताओं का सृजन पर्यावरण को प्रदूषण रहित बनाने के कार्य जैसा ही सार्थक और महत्त्वपूर्ण है।
बाल-कविताएँ 'बच्चों के लिए' हैं, मात्र इसलिए लय -ध्वनि-भाषा-छंद-मुहावरे आदि के बारे में मानकों व स्तर को लेकर हमें समझौता नहीं करना चाहिए। बल्कि कविताएँ ऐसी हों, जो छंदों की विविधता, सरल व रोचक शब्द-चयन, मुहावरों के सटीक प्रयोग, ध्वनियों-शब्दों की चमत्कारपूर्ण आवृत्तियों, शब्द-विन्यास के सही स्वरूप आदि की दृष्टि से हिन्दी का व्यावहारिक ज्ञान भी स्वतः करवा दें।
4 टिप्पणियां:
इस मायने में बच्चों के लिए अच्छी कविताओं का सृजन पर्यावरण को प्रदूषण रहित बनाने के कार्य जैसा ही सार्थक और महत्त्वपूर्ण है।
बहुत सही विचार हैं आपके ... अच्छा लिखा है।
समर्थन व प्रोत्साहन के लिए धन्यवाद !
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