रहस्योदघाटन मुझे प्यारे लगते हैं।
उनके बारे में कुछ किये बगैर
मैं बस उन्हें चाट जाना चाहता हूँ।
आखिर ऐसा क्यों चाहता हूँ मैं
कि नित नयी पोलें खुलें
नित नए भांडे फूटें
नित नए परदे फाश हों?
क्यों टटोलता हूँ अख़बार के पन्नों को
नयी पोलें खुलने की लालसा के साथ?
वैसे कितनी ही ऐसी शर्मनाक बातें हैं
जिन्हें शहर का बच्चा-बच्चा जानता है
वे पुरानी पोलें हैं जो पहले ही खुली हैं।
उनके बारे में भी मैं कुछ नहीं करता।
सवाल तो यह है कि मैं कुछ करना भी चाहता हूँ क्या?
या फिर बिल्ली की तरह
लपालप लपालप
दूध-मलाई चाटना ही मुझे अच्छा लगता है
ताकि अपनी लसलसी जीभ
को मूंछों पर फेरता रह सकूं!
1 टिप्पणी:
गजब लिखा है- ....ताकि अपनी लसलसी जीभ को मूंछो पर फेरता रह सकूं।
एक टिप्पणी भेजें