गुरुवार, 9 अप्रैल 2009

आज तक क्या कभी...

आज तक क्या कभी लड़े मुर्दे ?
देख, निश्चेष्ट हैं पड़े मुर्दे

ज़िन्दगी की तलाश में कब तक
यूँ उखाड़ेगे हम गड़े मुर्दे ?

नहीं इतिहास कब्रगाह फ़क़त
गो समेटे है यह बड़े मुर्दे ।

बूँद अमृत की एक बेचारी
अनगिनत घेर कर खड़े मुर्दे ।

साँस लेते हैं, चलते-फिरते हैं
ऐसे भी राम ने घड़े मुर्दे ।

जान
फूँकी 'दधीचि' ने इनमें
शब्द थे ये गले-सड़े मुर्दे ।

1 टिप्पणी:

संगीता पुरी ने कहा…

बहुत सुंदर रचना ...