आज तक क्या कभी लड़े मुर्दे ?
देख, निश्चेष्ट हैं पड़े मुर्दे ।
ज़िन्दगी की तलाश में कब तक
यूँ उखाड़ेगे हम गड़े मुर्दे ?
नहीं इतिहास कब्रगाह फ़क़त
गो समेटे है यह बड़े मुर्दे ।
बूँद अमृत की एक बेचारी
अनगिनत घेर कर खड़े मुर्दे ।
साँस लेते हैं, चलते-फिरते हैं
ऐसे भी राम ने घड़े मुर्दे ।
जान फूँकी 'दधीचि' ने इनमें
शब्द थे ये गले-सड़े मुर्दे ।
1 टिप्पणी:
बहुत सुंदर रचना ...
एक टिप्पणी भेजें