बुधवार, 25 मार्च 2009

शुक्र है

शुक्र है कि बच्चे अभी लड़ते हैं
वे ख़ूब गुस्सा करते हैं
आपस में ही नहीं, माँ-बाप से भी
दूसरों से ही नहीं, अपने आप से भी
उन्हें गुस्सा आता है
अन्दर से निकलता है
चेहरे पर बिखर जाता है
आँखों में हाथों में साफ़ दिख जाता है
कितनी ख़ुशी की बात है
कि हमारे नन्हे-मुन्ने
नहीं होते हमारी तरह
समझौतापरस्त
शातिर काइयाँ और घुन्ने !

3 टिप्‍पणियां:

संगीता पुरी ने कहा…

bahut achchhe bhav aur prastutikaran ... badhiya rachna.

बेनामी ने कहा…
इस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.
Dinesh Dadhichi ने कहा…

संगीता जी, प्रेरक टिप्पणी के लिए आभारी हूँ | भविष्य में भी नियमित रूप से रचनाएँ देता रहूँगा | क्रम बनाये रखें !