मैं ट्रेन में सोनीपत से कुरुक्षेत्र आ रहा था. बला की गर्मी थी और भीड़ की वजह से सब यात्री चिड़चिड़ा रहे थे. मैं दरवाज़े के निकट एक प्रौढ़ सिक्ख के साथ खड़ा था. बातों से पता चला कि उन्हें पानीपत जाना है.
पानीपत से पहले ही रात के अँधेरे में ट्रेन किसी छोटे से स्टेशन पर रुकी. मैंने बाहर झाँक कर स्टेशन का नाम पढ़ा.
अचानक भीड़ में से रास्ता बनाते हुए मेरे सिक्ख सहयात्री ने उतरने का उपक्रम किया. मैंने उन्हें कहा, "सरदार जी, ये तो 'दीवाना' (स्टेशन का नाम) है!"
उतरते-उतरते वे मुस्कराए और मुझे आश्वस्त करते हुए बोले, "कोई गल्ल नहीं, यार! असीं वी दीवाने ई हाँ!" और बाहर के अंधकार में विलीन हो गये.