शनिवार, 9 नवंबर 2013

असली बात

असली बात तो इनसानी तकलीफों की है .

तकलीफों की सूरत, देखो,
कैसी मिलती-जुलती सी है .
जैसी तेरे आसपास हैं
वैसी ही दुखदायी स्थितियां
मुझको कर जाती उदास हैं .
यूँ ही अकेला कर जाती है
हम सब को पीड़ाएं, लेकिन
यह भी क्या संताप नहीं है?
दुःख-दर्दों में टूट-टूट कर
अलग पड़े रहना ही आखिर
क्यों हमको लाज़िम लगता है?
जुड़ भी तो सकते हैं हम-तुम
उन दुःख-दर्दों में फंस कर
जो सांझे हैं, मिलते-जुलते हैं .

मुमकिन है, तकलीफें फिर भी
ख़त्म नहीं हों।
पर मुमकिन है
उनको ख़त्म किये जाने की
कोई राह निकल ही आये।

असली बात नहीं
दुःख-दर्दों, तकलीफों की,
असली बात हमारे
दुःख में मिल-जुल कर रहने की भी है!

गुरुवार, 24 अक्टूबर 2013

The Solitary Writer

A young, newly married woman, she was completely oblivious of the bustling activity and the medley of sounds around her. Ensconced on a bench at the airport with a pen in her hand, she was writing something in her diary. She had no earphones. NOT texting on her mobile cell. Her eyes were glued to the diary. There was a sweet smile on her lips. As my eyes rested on her, my mind was suddenly struck by the 'anomaly' her lone figure represented. Stop here or gently pass? I asked myself, though there was no fear of her being disturbed by my looking at her.

Her image in my heart I bore long after she was seen no more!

That made my day!

शुक्रवार, 4 अक्टूबर 2013

गो कि अपनी गली से गुज़रे हैं .....

गो कि अपनी गली से गुज़रे हैं
बन के हम अजनबी से गुज़रे हैं.

चार पल आपकी जुदाई के
दरहकीकत सदी-से गुज़रे हैं.

सब खरीदो-फरोख्त कर के चले
एक वो पारखी से गुज़रे हैं.

चुप रहे पर हमें लगा ऐसा
जैसे इक त्रासदी से गुज़रे हैं.

मन के सहरा में तेरी यादों के
काफिले चाँदनी-से गुज़रे हैं.

गुज़रे दिन याद करते-करते ही
हम ग़मे-जिंदगी से गुज़रे हैं.

मैं किनारे-सा सोच में डूबा

वो मचलती नदी-से गुज़रे हैं. 

मंगलवार, 17 सितंबर 2013

तौलिया बोला ...

एक झकाझक साफ़-सुथरा तौलिया शो-रूम से निकला और बाथ-रूम में नहीं पहुंचा. बल्कि वह यकबयक ऐसी हालत में देखा गया कि पानी-पानी हो गया. ऐसा लगा मानो खुद को ढकने के लिए कोई तौलिया ढूँढ रहा हो.

हुआ यूँ कि टीवी चैनलों के बीसियों कैमरों की चुंधियाती रोशनियाँ उस पर पड़ रही थीं और किसी जघन्य अपराध करने वाले का चेहरा उस तौलिए से ढाँप कर अदालत में ले जाया जा रहा था. ऐसे में तौलिया बोल उठा:

तौलिया बोला -- "सभी के काम आता हूँ.
ढाँपता हूँ, पोंछता हूँ, मैं सुखाता हूँ.
सोचने का काम तो इन्सान करता है;
सोचना उसका मुझे हैरान करता है.

इतनी हलचल हडबडाहट किसलिए आखिर?
कैमरों की चौंधियाहट किसलिए आखिर?
मैं भी हूँ पतलून कोई, कोट शर्ट कमीज़?
देखिये, कुछ सोचिये, मैं तौलिया नाचीज़!

यूँ अदालत में न ले कर जाइए मुझको.
कम-से-कम कुछ काम तो बतलाइये मुझको.
कौन-सा मुझको करिश्मा कर दिखाना है?
फैसला कीजे, मुझे किस काम आना है?

ढाँप कर चेहरे कभी थकता नहीं हूँ मैं,
कारनामे पोंछ, पर, सकता नहीं हूँ मैं!"

मंगलवार, 10 सितंबर 2013

शेखो-बरहमन को लगते हैं.....

अरसा पहले लिखी गयी यह रचना आज के हालात पर भी कमोबेश लागू हो रही है -- इसका बहुत अफ़सोस है!

शेखो-बरहमन को लगते हैं अपने दीन-धरम पर खतरे
लेकिन सच्चाई तो ये है, मँडराते हैं हम पर खतरे.

उपवन में कुचले गुलाब का सहमी बुलबुल का मतलब है
खुशबू की हत्या की कोशिश, घिरे हुए सरगम पर खतरे.

ऐसे में हमला करने को केवल एक गुलेल बहुत है
हवा ढो रही घड़े ज़हर के, हावी हैं मौसम पर खतरे.

सुनो, शराफ़त मियाँ, तुम्हारी नेक जिंदगी की राहों में
पग-पग पर होंगी विपदाएँ, होंगे कदम-कदम पर खतरे.

एक निरंतर दहशत है क्या आम आदमी की मजबूरी
नहीं सिर्फ उत्सव पर अब तो होते हैं मातम पर खतरे.

बंदूकें चुप हो जायेंगी ऐसे तो आसार नहीं हैं

अलबत्ता अब साफ़ दिखाई देने लगे कलम पर खतरे. 

बुधवार, 4 सितंबर 2013

दर्पण कहीं टूट न जाए!

कल्पना कीजिये कि कोई आपका दर्पण तोड़ दे, तो आप अपनी सूरत कहाँ देखेंगे?

कहते हैं साहित्य समाज का दर्पण है.

उस दर्पण की सुरक्षा आज किसकी प्राथमिकता है? उस वर्ग की तो निश्चित रूप से नहीं, जिसका मीडिया और सत्ता और व्यापार जगत में वर्चस्व है!

उनकी कोशिश है कि यह टूट ही जाए!

कृपया कुतर्क मत दें!

दर्शकों और पाठकों में सुरुचि का विकास करने की ज़िम्मेदारी तो मीडिया अरसा पहले ही पूरी तरह छोड़ चुका है. अब उसकी बात करना भी शायद आपको हास्यास्पद लगे.

मैं बात कर रहा हूँ उस तर्क की जो अक्सर दिया जाता है: कि मीडिया वही दिखाता या छापता है जो दर्शक/ पाठक देखना/ पढ़ना चाहते हैं. हर कोई जानता है कि मानव मन की निम्नतर प्रवृत्तियों का शोषण करने के लिए सेक्स और हिंसा को बार-बार दिखा कर एक तरह से कंडीशनिंग कर के व्यापारिक आर्थिक लाभ कमाना मीडिया की परिपाटी बन चुका है. यह बड़ी पुरानी बहस है कि समाज और कला-साहित्य दोनों में से कौन किसे प्रभावित करता है.

बहरहाल अब मीडिया की बढ़ी हुई ताकत, उसका विस्तार, उसकी पहुँच का दायरा ये सब एक तरफ हैं और दर्शक-पाठक की vulnerability निरीहता दूसरी तरफ. ऐसे में ऊपर दिये गये तर्क जैसी बातें सारी ज़िम्मेदारी 'समाज' नाम की अमूर्त चीज़ पर डाल देना चाहते हैं! यह मेरी चिंता का विषय है!

शनिवार, 31 अगस्त 2013

प्यार की बात नहीं...

एस्थर मैथ्यूज़ के एक लोकप्रिय गीत का हिंदी में काव्यानुवाद!


गुरुवार, 22 अगस्त 2013

मर्मस्थल पर वार हो रहे .....

मर्मस्थल पर वार हो रहे, बचने का भी ठौर नहीं
जड़ें कटीं तो ज़ाहिर है, आमों पर होगा बौर नहीं.

आज हमारी ख़ामोशी जो कवच सरीखी लगती है
कल इसके शिकार भी यारो, हमीं बनेंगे, और नहीं.

हिलने लगते राजसिंहासन धरती करवट लेती है
महलों में जब दावत हो, भूखी जनता को कौर नहीं.

कृपया मुझको महज़ वोट से कुछ ऊँचा दर्जा दीजे
क्षमा करें, क्या मेरी ये दरख्वास्त काबिले-गौर नहीं?

इस युग में भी सीधी-सच्ची बातें करते फिरते हो
चलन यहाँ का समझ न पाए, सीखे जग के तौर नहीं.

ठीक नहीं यूँ छोड़ बैठना परिवर्तन की उम्मीदें

खुद को अगर बदल लें हम, तो क्या बदलेगा दौर नहीं? 

मंगलवार, 20 अगस्त 2013

पढ़ना-पढ़ाना

बात उन दिनों की है, जब मैं एक कॉलिज में प्राध्यापक था. छात्रों की किसी हड़ताल आदि के दिनों में मुझे एक दिन गेट पर एक पुलिस वाले ने विद्यार्थी समझ कर रोक लिया.

मैंने उसे बताया कि मैं प्राध्यापक हूँ और इस कॉलिज में बच्चों को पढाता हूँ. उसने ऊपर से नीचे तक मुझे ध्यान से देखा और कहने लगा: "आप अगर पढ़ाते हैं, तो फिर ये किताबें हाथ में क्यों पकड़ी हुई हैं?"

ज़ाहिर है, उसका मतलब ये था कि पढ़ने का काम पूरा करके ही तो पढ़ाया जाता है!

जानकारी का संदेह

एक स्थिति की कल्पना कीजिये.

आपको अचानक कोई बात पता चलती है और आप आश्चर्य प्रकट करते हैं कि "मुझे अब जा कर यह पता चला है! और उधर मेरे सब सहकर्मियों को ये पहले ही मालूम है!" 

आप सोचते हैं कि मेरे 'दोस्तों' में से किसी ने मुझे पहले क्यों नहीं बताया?

दोस्त कहते हैं, "रहने दो. ज़्यादा बनो मत. हम मान ही नहीं सकते कि तुम्हें पता नहीं था."

अब बताइये क्या जवाब है आपके पास?

शुक्रवार, 9 अगस्त 2013

अर्थ का अनर्थ

दोस्तो, इधर एक लोकप्रिय हिंदी अखबार दो-तीन दिन तक 'गणतंत्र दिवस की तैयारियों' की रंगीन तस्वीरें छापता रहा! 

क्या कहा आपने? सब चलता है?

अखबार के हिसाब से, मुसलमान भाई नमाज़ 'अता' करते हैं और सड़क पर चलते वाहन 'खड्डे' की बजाय 'खदानों' में गिर जाते हैं!

अभी मेरी समझ में आया कि हिंदी अखबारों के पत्रकार अर्थ का अनर्थ क्यों करते होंगे.

दरअसल, प्रशिक्षण के दौरान उन्हें कहा जाता है कि 'अर्थ-लोभी' अपराधियों के काले कारनामों को unearth करें! 

अंग्रेज़ी और हिंदी में ज़्यादा फ़र्क तो वैसे भी अब रहा नहीं. मेरा मतलब है, जहाँ तक 'हिंदी' अखबारों का सवाल है! वे तो बस, देवनागरी लिपि में अंग्रेज़ी के अखबार बन गये हैं!

मंगलवार, 6 अगस्त 2013

क्या लिक्खूँ?

वो फिर से मुझको बताएगा आज क्या लिक्खूँ,
मगर मैं सोच रहा हूँ कि कुछ नया लिक्खूँ.

वही कहूँ कि जो कहने की दिल में हसरत है,
कलम की नोक पे ठहरा जो मुद्दआ लिक्खूँ.

खुले दिमाग सवालों का सामना करके
कलम उठाऊं, निडर हो के फैसला लिक्खूँ.

वो एक बात जो सीनों में सबके घुमड़े है,
उस एक बात का मैं पूरा माजरा लिक्खूँ!

सोमवार, 29 जुलाई 2013

आज नहीं आयी ......

आज नहीं आयी, आएगी कल बारिश
इसी तरह हर रोज़ कर रही छल बारिश.

विरही को तो यह तड़पाती है लेकिन
हलवाहे की मुश्किल का है हल बारिश.

बादल आँधी हवा सभी यूँ तो आये
तरसाती ही रही हमें केवल बारिश.

देख, पपीहे, दीन वचन मत बोल यहाँ
ऐसे नहीं किया करते बादल बारिश.

नहीं सिर्फ़ तन-मन में ठंडी आग बनी
चूल्हे कई जलाएगी शीतल बारिश.

घबराये मन को इक ठंडक-सी दे कर
तन में आग जगायेगी शीतल बारिश.

लोग कर रहे हैं कुदरत का चीर-हरण
हरियाली लाती जंगल-जंगल बारिश.

अस्त हो रहा सूरज भी मुस्काएगा
लहराएगी सतरंगा आँचल बारिश.



शनिवार, 27 जुलाई 2013

सावन का इतना ही ....

सावन का इतना ही किस्सा है बस
थोड़ी-सी बारिश है, ज़्यादा उमस.

धरती की आस-प्यास देख ज़रा देख
जम के बरसियो तू अब के बरस.

हम हैं फरियादी और वो संगदिल
दोनों ही होंगे नहीं टस से मस.

अब के सावन-भादों यूँ गुज़रे ज्यूँ
रस बिन बरस में महीने हों दस.  

गुरुवार, 18 जुलाई 2013

श्रेय में हिस्सेदारी

आखिरकार सुबह हुई, तो वाटिका में फूल खिल उठे; परिंदे चहचहाने लगे.

बहुत कृपा हुई मुर्गे की, जिसने बांग दी थी.

और सूर्य देवता?

हाँ, उन्हें भी धन्यवाद है!

बुधवार, 17 जुलाई 2013

मन की बात

मन की बात छिपाने को तू चाहे जो कह जा
नदी बना कर शब्दों की तू खुद उसमें बह जा
अर्थ समझने वाले केवल शब्द नहीं सुनते हैं
देख लिया करते हैं चेहरा, हाव-भाव, लहजा !

मंगलवार, 9 जुलाई 2013

जिन लोगों ने चाहा था .....

जिन लोगों ने चाहा था इज्ज़त की रोटी-दाल मिले,
ऊंचे महलों के तहखानों में उनके कंकाल मिले.

काँधे पर कोई शव ले कर हम चुपचाप चले जब भी,
लाख सवाल पूछते हमसे बातूनी बेताल मिले.

भूखे पेट लौटने पर भोजन की थाली मिल जाती,
नहीं चाहते हमें द्वार पर सजा आरती थाल मिले.

माँ, अब तुझे बेच खाने से नहीं गुरेज़ करेंगे लोग,
कोई और ज़माना था जब लाल, बाल और पाल मिले.

रोने से क्या अन्धकार में किरण तुम्हें मिल जाएगी?
ऐसा जतन करो, हाथों में जगमग एक मशाल मिले.

डर कर क्या तुम अंधियारे के खंजर से बच पाओगे?
मिल कर साहस करो तो लड़ने को सूरज की ढाल मिले.

बुधवार, 3 जुलाई 2013

हम नहीं सुधरेंगे.....

आज सुबह सैर के लिए निकला, तो यूनिवर्सिटी के एक लॉन में बिखरे हुए disposable glasses को देख कर मैं सोच में पड़ गया. आप कहेंगे कि ऐसा तो अक्सर होता है. पर इस स्थिति में कई बातें ऐसी हैं जो मन को दुखी करती हैं:

1. लॉन में इन बिखरे disposable glasses के बिलकुल पास dust bin रक्खा हुआ था.
2. ज़ाहिर है कि यह चिंताजनक लापरवाही दिखाने वाले यूनिवर्सिटी स्तर के शिक्षित लोग थे.
3. उनके लिए व्यक्तिगत रूप से glasses को dust bin में डालना बहुत आसान था.
4. उन सब में से किसी एक ने भी कोई सकारात्मक कदम नहीं उठाया. 
5. सुबह सैर करते हुए ऐसा दृश्य देखने वाले सब लोगों की आँख में यह खटका ज़रूर होगा.

और आखिर में एक और बात:

6. Garbage disposal इक्कीसवीं सदी की सबसे गंभीर समस्याओं में से एक होने वाली है. तैयार रहें!

Q. E. D.

After his eloquent analysis of "The Solitary Reaper", the teacher cast a glance at the visibly impressed students. He urged them to give their comments and observations and ask questions. One student stood up and said: "Sir, I think Wordsworth DID NOT like the reaper's song!" 

The teacher asked in consternation: "But what makes you think so?" 

The boy then presented the 'clinching' textual evidence in support of his 'theory':
"Look at this line, Sir. 'The music in my heart I BORE'!" And looked at everyone in the class with that Quod-Erat-Demonstrandum look!

मंगलवार, 25 जून 2013

मान लें क्या?

Coleridge भाई साब! आपने demand किया था कविता के लिए willing suspension of disbelief. और हमने माना भी. हमेशा यही किया. लेकिन अब आप की देखा-देखी टीवी चैनल वाले हमसे मांग रहे हैं willing suspension of common sense! 

अब बताइये, हम क्या करें? यह भी मान लें क्या?

सोमवार, 17 जून 2013

किसका करें भरोसा?

किसका करें भरोसा, मेरे भाई,
आखिर किसका करें भरोसा?

तरह-तरह के अखबारों को बाँच लिया करते हैं
आँखों देखी बातों को भी जाँच लिया करते हैं
सूप (छाज) की तरह झूठ छोड़ कर साँच लिया करते हैं
हम हीरे के धोखे में कब काँच लिया करते हैं?

लेकिन अब अखबारों ने भी मीठा ज़हर परोसा!
मेरे भाई, आखिर किसका करें भरोसा?

जादू का बक्सा भी लाया एक नयी रंगीनी
दिल दिमाग को ढकने वाली चादर जैसे झीनी
शामों की रौनक आपस की बातचीत भी छीनी
उसके कहने पर फीकी लगने लगती है चीनी

वह बोले, तो मीठा माना जाए गरम समोसा.
मेरे भाई, आखिर किसका करें भरोसा?

अपने जैसे बेशुमार हैं जग में जन साधारण
रहे खराबी से बचते, अच्छाई करते धारण
नहीं बने हम भाट किसी के चापलूस ना चारण
लेकिन हम पड़ गये अकेले चुप रहने का कारण

इस चुप्पी ने भी बीमारी को है पाला-पोसा!
मेरे भाई, आखिर किसका करें भरोसा?

अलग-अलग हैं हुए तजुर्बे, दुनिया देखी-भाली
पहले कुछ चीज़ें सफ़ेद थीं, कुछ होती थीं काली
अब थोड़ी-सी असली हैं, ज़्यादा चीज़ें हैं जाली
हंसों पर हँसते हैं कौए बैठे डाली-डाली

भला आदमी समझा जाता मिट्टी के माधो-सा
मेरे भाई, आखिर किसका करें भरोसा?

एहतियात के बावजूद खाएं धोखा, तो सोचें
अगर चाहते हैं फिर धोखे से बचना, तो सोचें
मुश्किल है, फिर भी मिल कर कोई रस्ता तो सोचें
जब भी मौका मिले फैसला करने का, तो सोचें

हमने अक्सर बाद में अपनी किस्मत को है कोसा!
मेरे भाई, आखिर किसका करें भरोसा?

मंगलवार, 11 जून 2013

ग़लतफ़हमी

लड़का ट्रेन के डिब्बे में पानी की बोतलें बेच रहा था. एक साहब ने बोतल को हाथ में ले कर उसका तापमान चेक किया, फिर पैसे देते हुए पूछ लिया: "पानी खराब तो नहीं है?" लड़के ने तुरंत कहा: "आई एस आई है, साहब!" बोतल खरीद कर साहब पानी पीने लगे और लड़का आगे बढ़ गया. 

बाद में साहब ने बोतल को ध्यान से चेक किया, उन्हें शक हुआ. जब लड़का फिर से डिब्बे में आया, तो वे बोले: "तुम तो कहते थे आई एस आई है! दिखाओ, कहाँ लिखा है?"

लड़के ने जवाब दिया: "मैं तो ये बोला कि ऐसाई है साहब!"

शनिवार, 8 जून 2013

काम

आदमी बीमार होता है। 
काम कर नहीं सकता।

आराम करता है।

औरत बीमार होती है. 
काम कर नहीं सकती .

काम करती है! 

रविवार, 26 मई 2013

रसास्वादन

हम दोनों गंभीरता से बहस कर रहे थे. क्या ऐसा संभव है कि किन्हीं दो व्यक्तियों के बीच कोई भी बात एक-दूसरे से छिपी हुई न हो? दो मित्रों के बीच, पति-पत्नी के बीच या क और ख के बीच. क्या कोई रिश्ता इतना गहरा और अटूट हो सकता है कि हर अनुभव आपस में बाँट लिया जाए? यानी जान-बूझ कर कोई बात छिपाई न जाए?

विकास का विचार था कि ऐसा संभव है. संभव ही नहीं, ऐसा होता है. मुझे इस विषय में संदेह था.
जब क और ख दो व्यक्ति एक जैसे नहीं हो सकते, तो दोनों के बीच आपसी विश्वास का ऐसा सम्पूर्ण रिश्ता कैसे हो सकता है?
चलो, आपसी विश्वास का न सही, क की ओर से ख के प्रति या ख की ओर से क के प्रति किसी एक तरफ से तो ऐसा रिश्ता हो ही सकता है, विकास समझौते के मूड में बोला.

मैं शायद उस से सहमत हो जाता, लेकिन अजीब बात यह थी कि उदाहरण के तौर पर उसने जिस रिश्ते का ज़िक्र किया, वह था खुद उसकी ओर से मेरे प्रति कोई छिपाव या दुराव न रखने का रिश्ता. वह ज़ोर दे कर कह रहा था कि उसने जान-बूझ कर कोई भी बात मुझ से कभी नहीं छिपाई थी. हम दोनों अच्छे दोस्त हैं. पिछले आठ बरसों से हम साथ-साथ रहे हैं. विकास के परिवार, उसके मित्रों, उसकी व्यक्तिगत बातों की मुझे अच्छी जानकारी है. उसके एकांतप्रिय स्वभाव के कारण यूँ भी परिचितों का दायरा सीमित ही है.

विकास सुन्दर, स्मार्ट और तंदुरुस्त युवक है. उसके व्यक्तित्व के बहुत से पक्षों से मेरा गहरा परिचय है. उसका शब्दों को ठहरा-ठहरा कर धीरे-धीरे वाक्य बना कर बोलने का अंदाज़ किसी हद तक बनावटी लगता है. बात करते हुए हाथों का ख़ास ढंग से ऊपर-नीचे होना नए परिचितों को अखरता भी है. मेरे बहुत निकट होने की बात कहने वाले इस व्यक्ति की बातचीत मुझे हमेशा से औपचारिक और सजग लगती रही है. किसी सुखद अनुभव या गहरी पीड़ा को जब वह रुक-रुक कर घिसे-पिटे औपचारिक शब्दों में प्रकट करता है, तो सुनने वाले को उनके बनावटी होने के एहसास से कोफ़्त होने लगती है. प्रायः सुनने वाला व्यक्ति इतना अनईज़ी महसूस करता है कि उसे बीच में रोक कर उसका वाक्य स्वयं पूरा कर देना चाहता है. मैं ऐसा करता भी हूँ.

इसके बावजूद हमारी दोस्ती इतने लंबे अरसे से अबाध चल रही है. यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है, क्योंकि एक तो हमारे बीच टकराव वाली कोई स्थिति कभी आयी ही नहीं, दूसरे एक अन्तरंग साथी की ज़रूरत के कारण हम दोनों अपने नितांत व्यक्तिगत अनुभवों को आपस में बांटते रहे.

तो मैं बता रहा था कि कैसे उसका बात करने का अंदाज़ मुझे या उसके अन्य परिचितों को अखरता है. मुझे याद है, लगभग चार महीने पहले एक दिन जब हम पिक्चर देख कर हॉल से बाहर निकले, तो दोनों हाथ थोड़ा ऊपर उठा कर उसने कहा, पिक्चर का मज़ा आ गया, यार! हीरो का अभिनय देख कर लगता ही नहीं कि वह अभिनय कर रहा है. कितना स्वभाविक! और पिक्चर की स्टोरी भी खूब ज़ोरदार रही और निर्देशन तो.....

वह ये वाक्य इतना रुक-रुक कर और शब्दों को लंबा कर के इस तरह से बोल रहा था कि अपनी आदत के मुताबिक मैंने वाक्य पूरा करते हुए कहा, निर्देशन तो खैर लाजवाब था. वह थोड़ा झेंप कर मुस्कराया. फिर बोला, बस, तुम्हारी यही बात मुझे अच्छी लगती है. तुम जान जाते हो कि मैं क्या कहने वाला हूँ. तुम मुझे समझते हो. तुम हमेशा....

मेरे मुँह की बात छीन लेते हो, यही न? मैंने हँस कर कहा. हॉल से निकल कर सड़क पर आये, तो विकास ने कहा, यार, भूख लग रही है ज़ोरों की. चलो, आज किसी होटल में चल कर खाना खाते हैं.

भूख मुझे भी लगी थी. खाना खाते वक़्त भी विकास पिक्चर के बारे में बात करता रहा. होटल से चले, तो वह खाने की तारीफ़ में वैसे ही वाक्य बोल रहा था. क्या ज़ायकेदार खाना बनाते हैं कमबख्त! आज तो आनंद आ गया. मन तृप्त हो गया पूरी तरह.

खाना खाने के बाद वह मुझे अपने कमरे तक ले गया. ज़िद करने लगा कि मैं थोड़ी देर बैठूँ. बातें शुरू हुईं, तो नमिता की चर्चा चल पड़ी. नमिता निश्चित रूप से विकास की ओर आकर्षित थी. बल्कि, उससे प्रेम भी करती थी. वह एम्.फिल. की छात्रा थी. यूनिवर्सिटी में ही उन दोनों का परिचय हुआ था. उसके प्रेम-पत्र मुझे शुरू से ही विकास पढ़वाता रहा था. मेरे मना करने के बावजूद. इससे उसको ज़रूर संतोष मिलता था. उसके अहं की तुष्टि होती थी.

मुझे इस बात पर कोई हैरानी नहीं थी कि नमिता विकास को खूब चाहने लगी थी. उसके बारे में बहुत भावुक हो गयी थी. आखिर विकास गठीले बदन का आकर्षक युवक था. दोनों की जान-पहचान दोस्ती में और दोस्ती प्रेम में बदल गयी, तो यह बिलकुल स्वाभाविक था. मेरे मन में कहीं यह ख़याल भी था कि इस रिश्ते से विकास का व्यक्तित्व कुछ निखरेगा और वह ज़्यादा गंभीर, संतुलित और समझदार हो जाएगा.

नमिता के पत्र आम प्रेम-पत्रों जैसे ही थे. प्रेम की अकुलाहट, प्रतीक्षा, पीड़ा, स्वप्नों, कल्पनाओं और शेरो-शायरी की तमाम बातें. बहरहाल, मैं रुचि ले कर उन्हें पढ़ता था और विकास के कहने पर उनका विश्लेषण और उनके आधार पर नमिता के स्वभाव आदि का थोड़ा-बहुत मूल्यांकन कर देता था.

पिक्चर वाली उस शाम के लगभग एक महीने बाद विकास जब मेरे कमरे पर आया, तो बड़ा खुश था. उत्साह उसके चेहरे से छलका पड़ रहा था. इस बीच हम हमेशा की तरह मिलते रहे थे. पर उस दिन वह बहुत प्रसन्न दिखाई दे  रहा था. कहने लगा, कल नमिता के साथ खूब बातें हुईं. मेरे कमरे पर ही. उसका डिज़र्टेशन लगभग पूरा हो गया है. बहुत प्यारी लड़की है. उसके परिवार के लोग तो पुराने विचारों के हैं, पर वह बड़ी साहसी और समझदार है.
वह तो ठीक है, लेकिन तुम कल की बात बता रहे थे, मैंने टोक कर कहा.
यूँ बात तो कुछ नहीं है. पर दोस्त, प्यार एक मधुर अनुभव है. पता नहीं, तुम्हें कभी हुआ या नहीं. उत्साह के कारण मैं रात भर सो नहीं सका.
आखिर कुछ बताओ भी. इन्सोम्निया तो एक बीमारी है, मैंने जान-बूझ कर उसे छेड़ा.
बस यार, पूछो मत. मज़ा आ गया कल. लाजवाब लड़की है नमिता. तीन-चार घंटे मेरे साथ रही. आनंद आ गया.
उसका चेहरा, उसकी भंगिमा, उसके शब्द, उसका अंदाज़ सब कुछ उस दिन जैसा ही था, जिस दिन हमने पिक्चर देख कर होटल में खाना खाया था.

इसके बाद वाले दो-तीन महीनों में न जाने क्यों, धीरे-धीरे विकास का दृष्टिकोण बदलने लगा. नमिता के पत्र उसके पास आते थे. पर वह छोटी-छोटी बातों को ले कर खीझ उठता था. उसकी भावुकता से चिढ़ने लगा था वह. छोटी-छोटी घटनाएं सुना कर वह मुझसे पूछता था, तुम्हीं बताओ, दोस्त, यह उसकी ज़्यादती नहीं है कि डॉ. मेहता के सामने वह मेरे साथ इस तरह बात करे?
या तुम फैसला करो. यह कहाँ की अक्लमंदी है कि तीन-तीन लड़कों के साथ कॉफी हाउस में बैठ कर घंटों गपशप करती रहे? चाहे वे इसके सहपाठी ही हों.
या फिर समय तय कर के मिलने न आना मुझे बिलकुल पसंद नहीं. ऐसी लापरवाह लड़की के साथ मैं सम्बन्ध नहीं रखना चाहता.

सच तो यह है कि इन सारी शिकायतों के बावजूद मैं नमिता को ज़्यादा दोषी नहीं मान  पा रहा था. इसलिए कभी-कभी नमिता की ओर से तर्क दे कर मैं उसे समझाने की कोशिश करता था.

पिछले इतवार को विकास मेरे पास आया और बोला, देखा, नरेश! मैं न कहता था कि यह लड़की ठीक नहीं है.
मैंने उसे उत्तेजित देख कर शांत होने को कहा, कौन लड़की? क्या हुआ? बैठ कर आराम से बताओ.
देखो, वह मेरे कमरे से चोरी कर के गयी है.
चोरी? मैं गंभीर हो गया, क्या-क्या चुराया उसने?
बाकी तो सारा कुछ चेक करने से पता चलेगा. अपने सारे प्रेम-पत्र तो उठा कर ले ही गयी है.

मुझे विकास की बातें बड़ी बेतुकी लगीं. नमिता एम्.फिल. कर के अपने शहर वापस चली गयी थी और जाने से पहले एहतियात के तौर पर अपने पत्र साथ ले गयी थी. पिछले दो-तीन महीनों में विकास के बदले हुए व्यवहार का यह स्वाभाविक परिणाम था.

कल रात मैंने विकास के कमरे पर ही खाना खाया. गो कि आज मैं उसके साथ अपने दोस्ती के रिश्ते की व्यर्थता समझ रहा हूँ, इस समझ को मैं लंबे अरसे से टालता आ रहा था. दरअसल, नमिता का एक पत्र आया था, जिसे पढवाने के लिए विशेष रूप से उसने मुझे कमरे पर बुलाया था. पत्र में इतने आत्मीय रिश्ते के टूटने का दर्द ज़ाहिर किया गया था. कुछ शेर थे जुदाई और ग़म के. मैं पत्र को पढ़ रहा था और विकास मेरे चेहरे को. पांच-छह पन्ने थे. आखरी पन्ना नीचे के कोने से थोड़ा-सा फटा हुआ था. इतना कि उस पर एक-दो वाक्य लिखे गये होंगे. मुझे आश्चर्य हुआ, संदेह भी. साफ़ पता लग रहा था कि विकास ने स्वयं यह हिस्सा फाड़ डाला था. पर वह तो मुझ से कुछ छिपाता नहीं था. आखिर उसने यह कोना क्यों फाड़ दिया?

खैर. पत्र पर अपनी प्रतिक्रिया बताते हुए मैंने खाना शुरू किया. शुरू कर भी नहीं पाया था कि विकास बोल उठा, अरे, नींबू तो लाना भूल गया. तुम ठहरो. बस मैं दो मिनट में नींबू ले कर आता हूँ. उसके बिना आजकल खाने का मज़ा ही नहीं आता.
उसके कमरे के नज़दीक ही सड़क पर सब्ज़ी की दूकान थी. मैं रोकता, इस से पहले ही वह जा चुका था. मैं उठा. मेज़ पर रक्खे पत्र को उठा कर फिर से देखने लगा. उस फटे हुए कोने के बारे में मैं उत्सुक हो गया था. अचानक मेज़ के नीचे फर्श के कोने में पड़े मुड़े हुए कागज़ के पुर्जे पर मेरी नज़र पड़ी. लपक कर मैंने उसे उठाया. नमिता के खत का फटा हुआ हिस्सा था वह. लिखा था, मैं माँ बनने वाली हूँ और डॉक्टर ने अबोर्शन करने से इनकार कर दिया है. मैंने कागज़ को उसी तरह मोड़ कर वापस फेंक दिया.

विकास नींबू ले आया. हम दोनों खाना खाने लगे. दाल अच्छी बनी थी. खाते-खाते एकदम जैसे मुँह में कड़वाहट भर गयी. अपनी दाल में नींबू मैंने खुद निचोड़ा था. शायद एक-आध बीज दाल में आ गया था. विकास ने पूछा, क्या हुआ?
कुछ नहीं. नींबू का बीज था शायद, मैंने कहा.
विकास मुस्कराया, मैं जब भी नींबू निचोड़ता हूँ, तो बीज हमेशा निकाल देता हूँ. पूरी सावधानी से. नहीं तो दाल का सारा मज़ा ही खराब हो जाता है.


बुधवार, 22 मई 2013

नए शिखर छू लिए...


नए शिखर छू लिये मगर वे सारे निर्झर किधर गये ?
नयी सदी की भाषा में से ढाई आखर किधर गये ?

जिनके घर में होने से घर अपना-अपना लगता था
हमको अपने ही घर में वो करके बेघर किधर गये ?

हर मुश्किल में साथ रहेंगे ये वादा करने वाले
संग हमारे चलते-चलते जाने मुड़ कर किधर गये ?

अपने पथ में पथरीली चट्टानें, कंकड़-पत्थर हैं
जिनकी चर्चा सुनते थे वे मील के पत्थर किधर गये ?

प्रश्नों की इस भीड़ के आगे क्यूँ खामोश खड़े हैं हम ?
कोई ज़रा बता दे आखिर सारे उत्तर किधर गये ?

जिनके छू लेने भर से दिल पर जादू-सा होता था
अब वे कर माथे पर से हो कर छूमंतर किधर गये ?

घर से सुबह चले जब मौसम खुशगवार-सा लगता था
अब वे सुरभित मंद पवन के झोंके सर-सर किधर गये ?

अगवानी में कोर-कसर तो कोई उठा नहीं रक्खी
आने वाले आते-आते राह भूल कर किधर गये ?

शुक्रवार, 10 मई 2013

वोटर-वार्ता

राजनीति का मंजा खिलाड़ी हाथ जोड़ता आया.
एक नए वोटर से उसका परिचय जब करवाया,
वोटर बोला, 'अक्सर आपके बारे में सुनते हैं,'
उत्तर मिला, 'मगर साबित तो कुछ भी नहीं हो पाया!'

मंगलवार, 9 अप्रैल 2013

लौटते मज़दूरों का बयान

17 मई 1988 की रात को पंजाब में रोपड़ के निकट एस वाई एल नहर के निर्माण में लगे इकतीस मजदूरों की आतंकवादियों द्वारा हत्या के बाद शेष मज़दूर बिहार आदि अपने प्रान्तों को लौटने लगे. इस प्रकार के समाचारों से प्रेरित थी यह कविता!

हम तो आये थे बाबूजी, लिंक नहर बनवाने को
बहता देखा खून, हुए मजबूर लौट कर जाने को.

आँधी थी कल रात, अँधेरा भी था गहरा-गहरा-सा
शोर हवाएँ करती थीं, पर आसमान था बहरा-सा
वक्त थम गया हो जैसे, हर पल लगता था ठहरा-सा
आप सुबह से मुर्दों पर देते हैं कैसा पहरा-सा?

ज़ख़्मी या मुर्दे तो पहुँचे नहीं रपट लिखवाने को.

सोच समझ कर आते हैं वहशी हमलावर, बिलकुल ठीक
वो फैलाना चाह रहे हैं लोगों में डर, बिलकुल ठीक
नहीं बचाया जा सकता हर गाँव या शहर, बिलकुल ठीक
हमें बचाना आपके बूते से है बाहर, बिलकुल ठीक

क्या ऐसी ही बातें अब रहती हैं हमें बताने को?

अगर नहर चालू होगी बंदूकों की निगरानी में
लहू बहेगा तीस जवाँ मज़दूरों का उस पानी में
मज़दूरों का ज़िक्र न होगा लेकिन किसी कहानी में
वो तो जान गँवा बैठे अनजाने में, नादानी में

मगर अभी तक जान बची है अपने पास बचाने को.

सोचा था कट जायं दलिद्दर, करने दूर कलेस चले
लेकिन किस्मत के आगे इंसानों की कब पेस चले?
किस से हो फ़रियाद भला अब किसके ऊपर केस चले?
फिर सामान बाँध कर आखिर अपने-अपने देस चले.

फिर से बीवी-बच्चे अब तरसेंगे दाने-दाने को.

बुधवार, 27 मार्च 2013

बूझो तो जानें

बचपन में जो पत्रिकाएँ या अखबार हम चाव से पढते थे, उनमें "फलों के नाम ढूंढिए" या "देशों के नाम ढूँढिये" जैसी पहेलियाँ बहुत पसंद की जाती थीं. आज पुराने कागज़ों में एक कागज़ पर स्वयं अपनी बनाई हुई ऐसी पहेलियाँ मिली हैं. आप भी इनका आनंद उठाएं और कुछ समय के लिए अपने बचपन में लौट चलें:

१. इस स्कूल में तीसरी और चौथी कक्षा की बराबर फीस लगती है (मिठाई)
२. प्यारे बेटे, चुपचाप सो; फ़ालतू बातें मत कर (फर्नीचर आइटम)
३. नाम तो उसका सुखी राम था, पर दुखी रहने की उसे आदत थी (सब्ज़ी)
४. नन्हा बालक कड़ी धूप में नंगे पाँव सड़क पर जा रहा था (सब्ज़ी)
५. मेरे बच्चो, मिठाई के सारे डिब्बे ला कर यहाँ रख दो (फूल)
६. टीचर ने बच्चों से पूछा, "तीन और पांच कितने होते हैं?" (शरीर का भाग)
७. गोली उसको लगने वाली थी, मगर दनदनाती हुई पास से निकल गयी (शरीर का भाग)
८. चाहे कोई कुछ भी करे, लाख सिर पटके, मौत से बचना नामुमकिन है (सब्ज़ी, रिश्ता, अनाज, फल)
९. उस भीषण दुर्घटना में तीन छोटे-छोटे बालक मर गये (शरीर का भाग)
१०. चाय गिरने से उसके कपड़ों पर दाग लग गये (ड्राइंग रूम आइटम)
११. जैसा स्वेटर तुम्हारे पास है, मुझे भी वैसा बुन दो (बाथ-रूम आइटम)
१२. दरवाज़े पर तो ताला लगा था, लेकिन खिड़की खुली हुई थी (पक्षी)
१३. देखते-ही-देखते दंगों की आग राजधानी के कई हिस्सों में फ़ैल गयी (नगर)
१४. मेरी सहेली चीन जा रही है (फल)
१५. जंगल में शेर से बच कर रहना (फल)
१६. साधु-संत राम-राम करते हैं (फल)