शुक्रवार, 25 दिसंबर 2009

चेहरों का माहिया

माहिया पंजाब की एक लोक-विधा है । इसके छंद का प्रयोग करते हुए आधुनिक भाव-बोध को व्यक्त करने का यह एक छोटा-सा प्रयास है :
चेहरे प्रतिमाओं के ।
छंद हैं ये पत्थर पर
लिक्खी कविताओं के ।

चेहरे पर दो आँखें ।
उड़ते बनपाखी की
फैली हुई हैं पाँखें ।

चेहरे क्यों उतर गये ?
दांत दुश्चिंता के
भीतर तक कुतर गये ।

चेहरे की लकीरों में ।
दर्द रेखांकित है
बूढी तस्वीरों में ।

चेहरों में परिवर्तन ।
होगा फिर नाटक का
इक और खुला मंचन ।

चेहरे भ्रमजाल बने ।
ये कभी नारायण
कभी नर-कंकाल बने ।

चेहरों का जंगल है ।
घना कुहरा है कभी
कभी छाया हुआ बादल है ।

चेहरे फिर सख्त हुए ।
प्यार विकलांग हुआ
रिश्ते हैं दरख़्त हुए ।

चेहरों की एल्बम है ।
खाली इक पृष्ठ पड़ा
कि अधूरी सरगम है ।

शुक्रवार, 18 दिसंबर 2009

धूप ज़रा मुझ तक आने दो

धूप ज़रा मुझ तक आने दो !

सुनो, शीत से काँप रहा हूँ
तन बाँहों से ढाँप रहा हूँ
कैसे राहत मिल सकती है
सूरज से मैं भाँप रहा हूँ ।

नहीं मूँगफली भुनी हुई, बस
थोड़ी गरमाहट खाने दो ।

कब से आगे खड़े हुए हो
बीच में आ कर अड़े हुए हो
खूब समझते हो सारा कुछ
फिर भी चिकने घड़े हुए हो ।

ऐसा क्या है ? मान भी जाओ,
जाने दो, यह ज़िद जाने दो ।

खरी बात, फ़रियाद नहीं है
क्या तुमको यह याद नहीं है ?
धूप हवा सब के साँझे हैं
यह कोई जायदाद नहीं है !

किस्सा ख़त्म करो, अब मुझको--
भी अपना हिस्सा पाने दो ।

धूप ज़रा मुझ तक आने दो ।

मंगलवार, 15 दिसंबर 2009

रात दिसंबर की

मौन रहस्यों की करती रखवाली रात दिसंबर की ।
चींटी की मानिंद चल रही काली रात दिसंबर की ।

खोई है अतीत में फिर भी गूँज रही उसकी आवाज़
कैसी थी वह हाथ से छूटी थाली रात दिसंबर की ?

कमरा, बिस्तर, टेबल, कुर्सी औ' उदास-सी दो आँखें
इतना कुछ फिर भी लगती है ख़ाली रात दिसंबर की ।

ठिठुरे खड़े पेड़ गुमसुम है आसमान भी जाग रहा
भूखे पेट मजूर को लगती गाली रात दिसंबर की ।

ऐसी ही थी रात कि जो अब तक गरमाती है मुझको
यादों के बक्से में खूब सँभाली रात दिसंबर की ।

सोमवार, 7 दिसंबर 2009

अंतराल

मेरे पुरखे कितने विवश और असहाय
रहे होंगे
उन्हें इस प्यारी धरती को
मेरे हवाले कर के आखिर जाना पड़ा .
मेरे बच्चों के बच्चे
कितने विवश और असहाय होंगे
कैसी धरती होगी
जिसे मैं उनके हवाले कर के जाऊँगा !
इस अंतराल में कोई विवश और असहाय नहीं है
तो वह मैं हूँ !

बुधवार, 2 दिसंबर 2009

'लम्बर' वाली पर्ची, सन्दर्भ भोपाल गैस काण्ड

सन्दर्भ: भोपाल गैस काण्ड के कई वर्ष बाद किसी पत्रकार के सवाल का एक गैस-पीड़ित महिला ने यह जवाब दिया-"हमें तो जी बस ये 'लम्बर' (नंबर) वाली पर्ची मिली है ।" कह कर उसने मुडी-तुड़ी पर्ची खोल कर दिखायी ।

कितनी बार पेश कर- कर के जेब में डाली पर्ची ।
बिल्कुल फटने वाली है ये 'लम्बर' वाली पर्ची ।

गैस हवा में डैने फैलाये थी डायन जैसे
फन फैलाये घूम रही ज़हरीली नागन जैसे
अपनी साँसें भी लगती हैं अपनी दुश्मन जैसे ।
लुट कर यूँ खोखले हुए, हों खाली बर्तन जैसे ।

हाथ हमारे आयी है तो बस ये खाली पर्ची ।

बीमारी ने इस कमज़ोर बदन में सेंध लगाई
भूख-प्यास के मारे अपनी जान गले तक आई
तब धकियाने वालों ने ये पर्ची हमें थमाई
इधर दिखाई, उधर दिखाई, कितनों से पढवाई ।

बिना दवाई राशन के लगती है गाली पर्ची ।

जो फ़रियाद करे वो जा कर लाठी-गोली खाए
उस डायन से बढ कर निकले, जो भी मिलने आए
स्वारथ के भूखे इन गलियों में आ कर मंडराए
कई दिनों तक सिर्फ़ अँगूठे कागज़ पर लगवाये ।

वे ही लोग आज कहते हैं ये है जाली पर्ची ।

कितने और तरीकों से है हमें मारना बाकी ?
ज़िम्मेदारी जिन लोगों पर है अपनी बिपदा की
उन पर हाथ कहाँ डालेगी कोई वर्दी खाकी ?
कम-से-कम मिल जाए हमको अपना चूल्हा-चाकी ।

ले लो हमसे वापस अपने जैसी काली पर्ची ।
बिल्कुल फटने वाली है ये 'लम्बर' वाली पर्ची ।

सोमवार, 30 नवंबर 2009

वे खुश हुए

बाड़ बन कर रौंद डाला खेत, तब वे खुश हुए ।
खा गयी हरियालियाँ सब रेत, तब वे खुश हुए ।
मार कर कुल्हाड़ियाँ स्वयमेव अपने पाँव पर
बन गया इन्सान जिंदा प्रेत, तब वे खुश हुए ।

रविवार, 22 नवंबर 2009

आज भला मैं क्यों उदास हूँ ?

आज भला मैं क्यों उदास हूँ ?

पहना नया गरारा मैंने
'भैया, सुनो' पुकारा मैंने ।
बोले, 'होम वर्क है करना,
डांट पड़ेगी मुझको वरना।'

नहीं देखते मुझको बिल्कुल,
मैं बस उनके आसपास हूँ ।
इसीलिये तो मैं उदास हूँ ।

पापा को दफ़्तर जाना था
काम बहुत सा निबटाना था ।
मम्मी खड़ी रसोईघर में
पड़ी नाश्ते के चक्कर में ।

वैसे दोनों कहते हैं, मैं--
उनके जीवन की मिठास हूँ ।
फिर भी देखो, मैं उदास हूँ !

शुक्रवार, 13 नवंबर 2009

कवच नहीं बन सके...

कवच नहीं बन सके डिठौने बच्चों के ।
काँटों से भर गए बिछौने बच्चों के ।

दुगनी लगन काम की, तिगुना लाभ मिले,
दाम मजूरी के हैं पौने बच्चों के ।

दुनियादारी की इन ऊँची बातों से
सपने हो जायेंगे बौने बच्चों के ।

बन कर कल असलियत सामने आएँगी,
बंदूकें हैं आज खिलौने बच्चों के !

ग़ज़ल

तब्सरा ये क़त्ल पर उनका हुआ--
"ठीक है, ऐसा हुआ, तो क्या हुआ?"

अपना मुस्तकबिल लगा था दाँव पर,
कितनी आसानी से ये सौदा हुआ !

ज़िक्र तक उस बात का आया नहीं,
आपका चेहरा है क्यूँ उतरा हुआ?

बात कल ऐसी कही मैंने कि वो
आज भी है सोच में डूबा हुआ ।

लब हिले उसके तो मैं समझा नहीं
वो उठा था 'अलविदा' कहता हुआ ।

आ रहा है आप की जानिब, जनाब!
बेअदब सैलाब ये बढ़ता हुआ ।

था तकाज़ा फ़र्ज़ का, बस इसलिए?
आप ही कहिये, ये क्या मिलना हुआ?

बुधवार, 11 नवंबर 2009

जनादेश

फिर बुलाया कुर्सियों ने बैठने को
फिर सभी को बैठने की हड़बडी है ।
ज़रा रुक कर वोट का संदेश समझें
अब ज़रूरत भी भला किसको पड़ी है ?
ये निबट लें तो शुरू हो काम कोई
सोच में डूबी हुई जनता खड़ी है !

गुरुवार, 5 नवंबर 2009

सत्रह हज़ार बधाइयाँ

खेल हो कठिन जिस दिन पिच साथ न दे
'लूज़' को बदल देता 'विन' में, कमाल है ।
गिन-गिन रन लेते रहने के बावजूद
हारने लगे जो टीम, लेता वो सँभाल है ।
गेंद चाहे तेज़ चाहे 'स्पिन' हो, लेकिन उसे
नहले पे दहला लगाना तत्काल है ।
बात तो ज़रूर कोई उसकी क्रिकेट में है
तभी तो सचिन बिन गलती न दाल है ।

सोमवार, 2 नवंबर 2009

दंगा-राहत

मंजीत ने अपना वादा पूरा किया था। आज उसकी चिट्ठी मिलने से पुनीता के उदास चेहरे पर ख़ुशी लौट आयी थी. ममी लॉन में कुर्सी डाल कर बैठी स्वेटर बुन रही थीं. साथ ही सोच रही थीं कि सहेली का पत्र मिलते ही पुनीता कैसे उड़ान भरते पक्षी की तरह उत्साह से भर गयी है, चहक रही है. उन्हें अपना बचपन याद आ गया. उनकी स्कूल-कॉलेज की सहेलियां सब अलग-अलग हो गयीं थीं. सभी अपने-अपने घरों, बच्चों और नौकरियों में व्यस्त होंगी. एक उसांस छोड़ कर वे फिर से बुनने लगीं. उधर अमृतसर से उनके देवर देव शरण की भी एक चिट्ठी आज आयी थी. वह परिवार-सहित हरियाणा में आ कर बसना चाहता था. इस विषय में बड़े भाई से सलाह-मशविरा करने वह चार-पाँच दिन में आने वाला था. बुनते-बुनते ममी के चेहरे पर चिंता और परेशानी के बादल घिर आये.
अचानक पुनीता गेट की ओर भागी--"पापा आ गए! ...पापा! आज दो चिट्ठियां आयीं हैं-- मंजीत की और चाचा जी की। मंजीत परसों वापिस आ रही है." अपने मन का उल्लास वह पापा के साथ बांटना चाहती थी. पापा गेट खोल कर अन्दर आये, तो उनके चेहरे पर अजीब-सा तनाव था. वे बहुत परेशान और चिंतित दिखाई दे रहे थे.
इससे पहले कि ममी कुछ पूछें, वे खुद ममी के निकट आ कर बोले--"कुछ सुना तुमने? सुनने में आया है कि श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या हो गयी।"
ममी अविश्वास से उनकी ओ़र देखती रह गयीं। फिर बोलीं--"किसने कहा आपसे? क्या रेडियो पर सुना है?" पुनीता का सारा उल्लास काफूर हो गया. "पुनीता, ज़रा अन्दर से ट्रांजिस्टर तो लाना. समाचार सुनने से पक्का पता चलेगा." पापा यह कहते हुए लॉन में कुर्सी पर बैठ गए.
धीरे-धीरे दिल्ली की घटनाओं के बारे में उड़ती-उड़ती खबरें पहुँचने लगीं. अगले दिन तक मंजीत, नोनू और उनके ममी-पापा के बारे में पुनीता को कुछ पता नहीं चला. वे सब ठीक-ठाक हैं या नहीं--यह चिंता उसके मन में बढती जा रही थी. रात को सोने से पहले वह पापा से खूब बातें करना चाहती थी, पर पापा अब कम बोलने लगे थे. जैसे-जैसे खबरें आतीं, वे ज्यादा गंभीर होते जाते. पुनीता बार-बार उनके नज़दीक आती. उसे ऐसा लगने लगा जैसे वह किसी बंद दरवाजे की ओर बार-बार जाती है, लेकिन उसे खटखटाती भी नहीं, क्योंकि उस पर ताला लगा है.
"पापा! मंजीत के ममी-पापा अब तक वापस नहीं आये। उन्हें कुछ हुआ तो नहीं होगा?" पुनीता ने पापा के चेहरे की तरफ यूं देखा, जैसे उनके आश्वासन से ही सब कुछ ठीक-ठाक हो जाएगा। उधर पापा के भीतर जो कुछ बर्फ की तरह जमा हुआ था, वह पुनीता के मंजीत और उसके परिवार के प्रति सहज-सच्चे लगाव की गर्माहट से धीरे-धीरे पिघलने लगा-- "पुनीता, कल रात जब तुम सोने से पहले प्रार्थना कर रही थीं, तब मैं आँखें बंद कर के लेटा हुआ था ना? मैंने तुम्हारी प्रार्थना के शब्द सुने थे। मैं तो यही चाहता हूँ कि तुम्हारी प्रार्थना से अगर मंजीत, नोनू और उनके ममी-पापा यहाँ सकुशल लौटते हैं, तो ऐसा ही हो। पर मुझे दो-तीन दिन से ऐसा लग रहा है कि शुभकामना या प्रार्थना अच्छी होते हुए भी काफी नहीं है । इससे आगे भी कुछ करना ज़रूरी है।"
"जैसे कोई बड़ा बलिदान?" पुनीता का सवाल था ।
"देखो, बेटे! बड़ा बलिदान करने के मौके तो ज़िन्दगी में थोड़े-से ही होते हैं। अगर हम रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में छोटी-छोटी बातों का ध्यान रखें, तो उसीसे बड़ी-बड़ी मुश्किलें हल हो सकती हैं।"
"पापा! सब का सोचने का तरीका भी तो अलग-अलग होता है ना ? इससे भी मुश्किलें खड़ी हो जाती हैं।"
"नहीं, बेटे ! इससे मुश्किलें खड़ी नहीं होतीं. बल्कि यह तो अच्छी बात है. खैर, वह सब तुम्हें फिर कभी समझाऊंगा . फिलहाल तो हमें...."
"मंजीत के बारे में पता लगाना चाहिए," पुनीता ने जल्दी से पापा का अधूरा वाक्य पूरा किया।
"हाँ, बेटे ! मुझे भी आज चिंता हो रही है. कल दोपहर तक अगर वे नहीं आये, तो टेलीग्राम भेज कर पता करेंगे. "सुनो, मंजीत की चिट्ठी में वहां का फोन नंबर लिखा है क्या ?"
"नहीं, पापा. फोन नंबर तो नहीं है. बस, पता लिखा हुआ है."
पापा का ध्यान देव शरण की ओर चला गया . उसका हरियाणा में किसी स्थान पर आ कर रहना लगभग तय हो चुका था .यह निर्णय भी कोई आसान नहीं था . पापा सोच रहे थे कि देव शरण के साथ वे क्या बात करेंगे ? क्या कहेंगे उसको ?
यह मंजीत ही तो थी, जो पुनीता के सामने खड़ी थी . वही आँखें थीं, पर वैसी नहीं थीं . वही चेहरा था पर वैसा नहीं था . थोड़े-थोड़े शब्द उसके मुंह से निकलते थे, पर वह ऐसा कुछ नहीं बोल रही थी कि "पागल है तू तो !"जो भी वह कहती या करती थी, उसमें स्वयं मौजूद नहीं होती थी . ज़रूर पिछले चार दिनों में ही सब कुछ हुआ था . पुनीता को ठीक-ठीक मालूम नहीं कि क्या हुआ था . वह मंजीत के घर से लौटते हुए विचारों में खोई हुई थी . मंजीत के ममी-पापा सकुशल घर आ गए थे-- इस बात से उसके मन को बड़ी राहत मिली थी . पर उन सब का व्यवहार उसे पहेली की तरह लग रहा था . शायद पापा कुछ बता सकें .
पापा मंजीत के 'दारजी' से मिलने के लिए घर के गेट से बाहर निकल रहे थे । बाहर पड़ोस के घर की दीवार के साथ नोनू अपने दोस्त संजू के साथ बातें करने में खोया हुआ था . छोटी-सी गेंद उसके हाथ में थी . खेलते-खेलते शायद वे बातों में ज्यादा रुचि लेने लग गए थे . संजू बालसुलभ गर्व के साथ बता रहा था -- "'दिल्ली में ना मेरे मामा जी रहते हैं .उनके घर में ना एक खरगोश था . एक दिन पता है क्या हुआ ? दोपहर को बिल्ली ने उसको मार दिया ." नोनू का ध्यान संजू के पहले वाक्य में ही अटक गया लगता था . जैसे वह भी संजू से कुछ कम नहीं था, इस अंदाज़ में बोला -- "दिल्ली में तो मेरी नानी भी रहती हैं . और पता है ? मेरे तो नाना जी भी नहीं मरे ।"
पापा के कदम ठिठक गये . मंजीत के नाना-नानी के बारे में जान कर आश्वस्त तो हुए, लेकिन उनके न मरने की खबर से मिली राहत ने भी उन्हें सोचने पर विवश कर दिया .

क्या अब हम ऐसी राहतों के सहारे जिंदा रहेंगे ? आखिर हम ऐसा क्यों होने देते हैं बार-बार ?

रविवार, 1 नवंबर 2009

शुरू नवम्बर की धूप

धूप को आजकल न जाने क्या हो गया है !
उनींदी, अलसायी, आरामतलब-सी
निर्लिप्त भाव से पड़ी रहती है
आँगन के कोने में
दिन भर बिछी रहती है लॉन में
फिर भी महसूस नहीं होती
आती है दबे पाँव
झिझकती-सी
मैं इसे प्रायः देखता हूँ
दीवारों की अनदेखी सीढियाँ चढ़ते-चढ़ते
यह थक कर हाँफने लगती है
झुर्रियों की सर्पांकित रेखाएँ
अपना ज़हरीला असर
दिखलाती हैं
इसके चेहरे पर दिन-भर

रोज़ सुबह मैं लॉन के कोने में
कुर्सी डाल कर बैठ जाता हूँ
सोचता हूँ--
धूप आएगी
तो कुर्सी की पीठ पर सिर टिका कर
उसे अपने चेहरे के पोर-पोर में
सोख लूँगा
उसकी सुखद गर्माहट से
देह को ढाँप लूँगा
उसके अपनत्व भरे हाथों का स्पर्श
अपनी त्वचा में समो लूँगा, संजो लूँगा
संग उसके कुछ ठिठोली कर
सभी संकोच की परतें हटाऊंगा
बुलाऊंगा उसे, गपशप चलेगी
फिर बड़े शालीन लेकिन सहृदय वातावरण में
मैं उसे दीवार या छत तक विदा कर लौट आऊंगा

पर ऐसा कभी नहीं होता
लगता है --
धूप की जीवनी-शक्ति चुक गयी है
उत्साह-हीन हो गयी है वह
चेहरे से लगती है बीमार-सी
इतनी जल्दी ऐसी हो जायेगी धूप--
कभी सोचा भी नहीं था

धूप को आजकल न जाने क्या हो गया है !

गुरुवार, 29 अक्टूबर 2009

चमक-दमक

बाज़ारों में चमक-दमक है ।
जिधर देखिये बस रौनक है ।

नए-नए चैनल टी वी पर
हर पल रहे बदल टी वी पर ।

हर दफ्तर में मेज़ के ऊपर
रक्खा रहता है कम्प्यूटर ।

पहले तो होती थी फाइल
हाथों में अब है मोबाइल ।

बिजली की तारें ज़्यादा हैं ।
सड़कों पर कारें ज़्यादा हैं ।

पीं पीं पीं पीं पों पों पों है ।
हर कोई जल्दी में क्यों है ?

रविवार, 25 अक्टूबर 2009

मरीचिका

रेलगाड़ी अभी नहीं आयी थी । उमस बढती जा रही थी । गरमी में पसीने की चिपचिपाहट से सबके बदन भीग गए थे । कितने ही होंठ पपडाए हुए थे । लोहे की जाली वाली खिड़की के ऊपर तीन भाषाओँ में लिखा था-- 'शीतल जल' । खिड़की के सामने लोगों को पंक्तिबद्ध रखने के लिए मज़बूत पाइप लगे थे ।
पानी नहीं मिल रहा था । लोग शिकायत के लहजे में बातें कर रहे थे । एक युवक दो बार स्टेशन मास्टर के कमरे में झाँक आया था । उसने अपनी नोटबुक में से कागज़ फाडा । पानी न मिलने की शिकायत उस पर लिखी । सधे हुए क़दमों से वह शिकायत-पेटिका की ओर बढा ।
'ऊ....ई ...!' दर्द से चिल्लाते हुए युवक ने अपना हाथ शिकायत-पेटिका के जबड़ों में से वापिस खींच लिया । शिकायत वाला कागज़ नीचे गिर गया । पीली-पीली बर्रों का झुंड पेटिका में से निकल कर मँडराने लगा ।
'शीतल जल' वाली खिड़की के आगे से भीड़ छँटने लगी थी । नकली शीतल पेय बेचने वाले स्टाल पर भीड़ बढने लगी थी ।

मंगलवार, 20 अक्टूबर 2009

असली बात

असली बात तो इन्सानी तकलीफ़ों की है ।
तकलीफ़ों की सूरत, देखो,
कैसी मिलती-जुलती-सी है ।
जैसी तेरे आसपास हैं
वैसी ही दुखदायी स्थितियाँ
मुझको कर जाती उदास हैं ।
यूँ ही अकेला कर जाती हैं
हम सब को पीड़ाएं
लेकिन
यह भी क्या संताप नहीं है ?
दुख-दर्दों में टूट-टूट कर
अलग पड़े रहना ही
आख़िर क्यों हमको लाजिम लगता है ?
जुड़ भी तो सकते हैं हम-तुम
उन दुख-दर्दों में फँस कर
जो साँझे हैं, मिलते-जुलते हैं ।
मुमकिन है, तकलीफें फिर भी
ख़त्म नहीं हों ।
पर मुमकिन है
उनको ख़त्म किए जाने की
कोई राह निकल ही आए !

असली बात नहीं
दुख-दर्दों तकलीफ़ों की;
असली बात हमारे
दुख में मिल-जुल कर
रहने की भी है !

शनिवार, 17 अक्टूबर 2009

ग्रीटिंग कार्ड

तुम्हें कैसे ग्रीटिंग कार्ड पसंद हैं ?

दुकान में जाता हूँ, तो कितने ही रंगों का
ठहरा हुआ समंदर
फैला होता है काउंटर पर ।
दुकानदार कहता है -"कोई भी चुन लीजिये, साहब,
हमारे पास हर तरह के कार्ड हैं ।
इन कार्डों पर हँसाने-गुदगुदाने वाले कार्टून हैं ।
उन पर उतरे हुए शिमला, मसूरी, देहरादून हैं ।
कुछ पर नावें, चिड़ियाँ, फूल,
साँझ का उदास वातावरण है ।
कुछ में जंगल, बादल व निर्झर की कल-कल का चित्रण है ।
कई मिलन-दृश्य हैं प्रेमी-युगलों के सिलुएट में
कोलाज या क्यूबिक आर्ट के कार्ड हैं इस पैकेट में ।
इन कार्डों पर हँसते-मुस्काते नन्हे-मुन्नों के चित्र हैं ।
उन को पा कर खुश होंगे, अविवाहित जो मित्र हैं !
ये पेंटिंग्स बनाई हैं बच्चों ने
अपने नाज़ुक हाथों से...."
परेशान-सा हूँ मैं दुकानदार की बातों से ।
सोचता हूँ, तुम्हें कैसे ग्रीटिंग कार्ड पसंद हैं ?

क्या तुम्हें भी ऐसे ग्रीटिंग कार्ड पसंद हैं
जो वर्ष में तीन-चार गिने-चुने अवसरों के
कृत्रिम औचित्य के दायरे में बंद हैं ?
दुकानदार से नहीं कहता हूँ
फिर भी मैं सोचता रहता हूँ--
कोई ऐसा ग्रीटिंग कार्ड हो
जो उत्सवों पर नहीं,
अकेलेपन या उदासी के बेरौनक अवसरों पर
लम्बी यात्राएँ कर
तुम तक ख़ुद जा पहुँचे ।
साक्षी हो जाए जो मेरे अपनेपन का
अन्तरंग साथी हो मन के सूनेपन का
ऐसा ग्रीटिंग कार्ड जिसमें
सौहार्द का स्पर्श, आत्मीयता की गंध हो
दिखावट से मुक्त जो
स्वतंत्र-स्वच्छंद हो
ऐसा ग्रीटिंग कार्ड जो तुम्हें सचमुच पसंद हो !

शुक्रवार, 16 अक्टूबर 2009

आपस का हो प्रेम...

आपस का हो प्रेम जहाँ पर

मिलता है उल्लास वहीं ।

दीप जहाँ भी रख दोगे तुम

होगा स्वयं उजास वहीं ।

पूजन से प्रसन्न हो कर

आएँगी लक्ष्मी, मगर सुनो--

नारायण का वास जहाँ है

लक्ष्मी करती वास वहीं ।

सोमवार, 12 अक्टूबर 2009

आसमान की सैर

आसमान की सैर करेंगे ।

लन्दन औ' पेरिस जाना तो
बात पुरानी लगती है ।
अमरीका की धरती भी
जानी-पहचानी लगती है ।

अब तो किसी नयी दुनिया की
सैर हमारे पैर करेंगे ।

इस धरती पर रहते-रहते
कर ली है भरपेट लड़ाई ।
रॉकेट में जाने से पहले
आओ, हाथ मिला लो, भाई ।

चलो, कसम खाते हैं, अब हम
नहीं किसी से वैर करेंगे ।
आसमान की सैर करेंगे !

सोमवार, 5 अक्टूबर 2009

आदरणीय चोर

पहले चोर जादू नहीं जानते थे
सेंध लगाने की पूरी मशक्कत
मजबूरन उन्हें करनी पड़ती थी ।
हमारी अनुपस्थिति में वे आते थे
या हम सो रहे होते थे
तभी वे अपना कार्यक्रम बनाते थे ।
जब हम जाग जाया करते,
तो वे भाग जाया करते थे ।
अब हम देख रहे होते हैं
और वे हमसे हँसते-बतियाते
खुल कर हम को लतियाते हैं
चोर बिल्कुल नहीं कहलाते हैं ।
हम कसम खा कर कहते हैं
कि ये आदरणीय हैं
ये जो हमारे घर में बैठ कर
फैलते-पसरते हैं
ये जो भी करते हैं
उसमें बिल्कुल नहीं डरते हैं ।

देखो देखो कैसे सामान समेटा है
वाह-वाह क्या खूब
गठरी में बाँधने से पहले लपेटा है ।

अब चोर जादूगर होते हैं
तभी तो हम
समझदारी के नाम पर
उनकी दी हुई भ्रांतियों को ढोते हैं !

शुक्रवार, 2 अक्टूबर 2009

जय जवान जय किसान ...?

जान लेना देश के हर शत्रु की, फिर जान देना

है जवानी का यही अंदाज़ अपने देश में ।

कृषक अपनी जान लेने को विवश हैं, बोलिए---

किसे अपने देश पर है नाज़ अपने देश में ?

सोमवार, 28 सितंबर 2009

मीडिया हो या नेतागण

मीडिया हो या नेतागण -- एकसूत्री कार्यक्रम एक शे'र में (स्व० दुष्यंत कुमार से क्षमा-याचना सहित)

सिर्फ़ हंगामा खड़ा करना ही मकसद है मेरा
मेरी कोशिश है कि मेरी जेब भरनी चाहिए ।

मर्मस्थल पर वार हो रहे ...

मर्मस्थल पर वार हो रहे, बचने का भी ठौर नहीं ।
जड़ें कटीं तो ज़ाहिर है, आमों पर होगा बौर नहीं ।

आज हमारी ख़ामोशी जो कवच सरीखी लगती है
कल इसके शिकार भी यारो, हमीं बनेंगे, और नहीं ।

हिलने लगते राजसिंहासन, धरती करवट लेती है,
महलों में जब दावत हो, भूखी जनता को कौर नहीं ।

कृपया मुझको महज़ वोट से कुछ ऊंचा दर्जा दीजे
क्षमा करें, क्या मेरी यह दरख्वास्त क़ाबिले-गौर नहीं ?

इस युग में भी सीधी-सच्ची बातें करते फिरते हो
चलन यहाँ का समझ न पाए, सीखे जग के तौर नहीं ।

ठीक नहीं यूँ छोड़ बैठना परिवर्तन की उम्मीदें
ख़ुद को अगर बदल लें हम, तो क्या बदलेगा दौर नहीं ?

सोमवार, 21 सितंबर 2009

इस हद तक

आसमान बदरंग हुआ था
दोनों तरफ़ 'अपार्टमेंट्स' थे
सामने ख़ाली सड़क ।
सूनापन था भीतर-बाहर
चौबीस घंटे चलती-फिरती
हँसती-गाती तस्वीरों के बावजूद
मन था उदास ।
ढल चुकी थी उम्र उसकी
और जा चुके थे बच्चे परदेस ।

अनायास भर कर उसाँस
जब दुआ के लिए
दोनों हाथ उठे ऊपर
तो 'डि-ओडरेंट' का ही विचार
कौंधा भीतर !

गुरुवार, 17 सितंबर 2009

हिन्दी दिवस पर सम्मान

सब हिन्दी-प्रेमी और साहित्य-प्रेमी चिट्ठाकारों के साथ यह समाचार साझा करना चाहता हूँ कि हरियाणा प्रादेशिक हिन्दी साहित्य सम्मलेन, सिरसा (हरियाणा) ने नाचीज़ को हिन्दी भाषा और हिन्दी साहित्य की सेवाओं के लिए प्रशस्ति-पत्र, अंगवस्त्र, स्मृति-चिह्न आदि प्रदान कर के सम्मानित किया है ।

कभी मिलती नहीं

व्यस्तता के व्यूह में फुर्सत कभी मिलती नहीं ।
खेल लें हँस लें यहाँ, मोहलत कभी मिलती नहीं ।

कितनी दीवारें बनाई जा रहीं उनके लिए
जिनको अपने सर के ऊपर छत कभी मिलती नहीं ।

वक़्त के विश्रामघर में भीड़ भी है शोर भी
ज़िन्दगी की राह में राहत कभी मिलती नहीं ।

शुतुरमुर्गों से भला तूफ़ान की क्या पूछिए ?
इनमें चिंता की बुरी आदत कभी मिलती नहीं ।

नया सूरज मैं कोई चिपका तो दूँ आकाश पर
अजनबी को पर यहाँ इज्ज़त कभी मिलती नहीं ।

शुक्रवार, 11 सितंबर 2009

ऐसा क्यों होता है कि....

अगर अंग्रेज़ी का अध्यापक हिन्दी में हस्ताक्षर करे, तो सब चकित हो कर पूछते हैं , "क्यों?" पर हिन्दी का अध्यापक अगर अंग्रेज़ी में हस्ताक्षर करे, तो कोई चकित नहीं होता ? शायद हिन्दी में हस्ताक्षर करना वैसा ही है, जैसा अंगूठा लगाना । हिन्दी दिवस पर ज़रा विचार करें ।

सोमवार, 7 सितंबर 2009

बेखयाली

हम अक्सर लपक कर
जा रहे होते हैं
उनकी ओर जिन्हें हम चाहते हैं
पर जहाँ हम अंततः पहुँचते हैं
वहां वे नहीं होते,
सिर्फ़ उनकी छायाएँ होती हैं ।
यह काफ़ी दुखद स्थिति होती है
पर इससे भी ज़्यादा दुखद वह होता है
जो इस सारी प्रक्रिया में
अनजाने घटित होता रहता है ।
यानी जब हम लपक कर
बढ रहे होते हैं
उनकी ओर जिन्हें हम प्यार करते हैं
उसी समय --- ठीक उसी समय
बेरहमी से नहीं, सिर्फ़ बेख़याली में
हम रौंद रहे होते हैं
उनको जो हमें प्यार करते हैं ।
वैसे यह बेख़याली बेरहमी से
कम तो नहीं होती !

शुक्रवार, 4 सितंबर 2009

शिक्षक दिवस पर

यद्यपि मैं बिल्कुल ठोस, भरा-पूरा
और साबुत दिखायी देता हूँ,
मेरी एक प्रतिमा खंडित हो चुकी है।
मैंने उसे खंडित होते
लगातार, खुली आँखों से देखा है।
दरअसल ऐसा एकदम से नहीं हुआ,
रातोंरात भी नहीं,
बल्कि थोड़ा-थोड़ा कर के
पिछले कई बरसों में हुआ है।
एक बार जब मैंने कहा
"कहते तो हैं पर पक्का पता नहीं"
प्रतिमा में हलकी सी दरार आयी ।
दूसरी बार जब मैंने कहा
"पक्का पता है लेकिन ऐसा कहते नहीं"
सुन कर बच्चे चौंके ।
तीसरी बार जब मैंने कहा
"यह भी ठीक है और वह भी"
वे बोल उठे -- "अच्छा जी ?"
फिर तो चौथी बार मैंने कहा
"ठीक-ग़लत के पचडे में मत पडो"
पाँचवीं बार मैंने कहा
"कुछ फर्क नहीं पड़ता
कुछ नहीं होने वाला"
यानी हर बार सिलसिलेवार
उस प्रतिमा को खंडित होते मैंने देखा
अपने बच्चों की आँखों के अन्दर
उस प्रतिमा के साथ और बहुत कुछ टूट गया
मेरे बच्चों के भीतर
बेआवाज़ लेकिन सिलसिलेवार ।
मैं यूँ ही तो नहीं इतना शर्मसार !

मंगलवार, 1 सितंबर 2009

सवाल

पक कर सेब गिरा डाली से

आया नीचे धरती पर ।

"ऐसा क्यों होता है आख़िर?"

न्यूटन ने माँगा उत्तर ।

क्यों कैसे कब क्या और किसका

किसको कहाँ ज़रूरी है ।

नासमझी और सच्चाई में

केवल इतनी दूरी है ।

देखो और सवाल उठाओ

सोचो क्या उत्तर होगा ।

तभी समस्याएं सुलझेंगी,

यह जीवन सुंदर होगा ।

शुक्रवार, 28 अगस्त 2009

प्रेमचंद मुंशी नहीं थे

इस विषय में हमारे सवाल का सही उत्तर डॉक्टर रूप चन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने दिया है । १९३५ में जब प्रेमचंद ने 'हंस' के सम्पादक श्री के एम् मुंशी के साथ सह-सम्पादक के रूप में कार्य आरम्भ किया, तो सम्पादक-द्वय का नाम इस प्रकार दिया गया कि 'मुंशी' शब्द प्रेमचंद के नाम के साथ जुड़ने का आभास हुआ। बाद में यही नाम प्रचलित हो गया ।
अगर आप चाहें तो ऐसे प्रश्न पूछने का क्रम जारी रखा जाए । अपनी राय ज़रूर दीजिये ।

बुधवार, 26 अगस्त 2009

क्या प्रेमचंद 'मुंशी' थे ?

सवाल यह है कि क्या प्रेमचंद 'मुंशी' थे ? उनके जीवन-परिचय से ऐसा कुछ पता नहीं चलता । अगर वे मुंशी नहीं थे, तो आख़िर क्यों उन्हें यह 'उपाधि' दी गयी है ? इन सवालों के सही जवाब आपके पास हैं, तो संक्षिप्त टिप्पणी के रूप में लिखें। उत्तर इसी ब्लॉग पर अगले पोस्ट में दिया जाएगा ।

सोमवार, 24 अगस्त 2009

बादल की छाँव

कभी चमकती धूप कभी यह बोझीले बादल की छाँव ।
लिपट गयी है पल भर को मुझसे गीले बादल की छाँव ।

बारिश आयी, सांझ ढले यह गाती हुई बयार चली--
"अगर शेष है प्यास अभी, पी ले पीले बादल की छाँव " ।

उड़ता हुआ वायुमंडल में अस्थिर है अस्तित्व मेरा
जैसे किसी उदास, शून्य-से, दर्दीले बादल की छाँव ।

जीने के उपकरण सभी हैं-- फूल, चाँदनी, नील गगन,
ये पहाड़, ये नदियाँ, झरने, ये टीले, बादल की छाँव ।

आती है, तो सारा जग बदला-बदला-सा लगता है,
याद तुम्हारी कहूँ इसे या सपनीले बादल की छाँव ?

मंगलवार, 18 अगस्त 2009

हुआ उजाला

बचपन में सुबह-सुबह बिस्तर पर आँखें बंद रख कर आसपास की आवाजें सुनना मुझे अच्छा लगता था । उसी अनुभव से उपजी है यह बाल-कविता ।

अंधकार की काली चादर धरती पर से सरकी
हुआ उजाला जग में, कोई बात नहीं है डर की

चीं-चीं चीं-चीं चिड़िया बोली डाली पर कीकर की
कामकाज बस शुरू हो गया सब ने खटर-पटर की

लाया है अख़बार ख़बर सब बाहर की, भीतर की
घंटी बजी, दूध मिलने में देर नहीं पल भर की

मैं सुनता रहता हूँ हर आवाज़ रसोईघर की
मम्मी के जादू से यह लो, सीटी बजी कुकर की !

मंगलवार, 11 अगस्त 2009

कागजों की किश्तियाँ

दूर तक फैला हुआ जल, कागजों की किश्तियाँ ।
खोजती हैं कोई सम्बल कागजों की किश्तियाँ ।

पेश्तर इसके कि छू लें क्षितिज पर छाई घटाएं
ख़ुद ही मिट जाएँगी पागल कागजों की किश्तियाँ ।

हृदय पर पत्थर धरे दायित्व कन्धों पर उठाये
खे रहे हैं लोग बोझल कागजों की किश्तियाँ ।

रिस रहा है खून पानी लाल पर होता नहीं है
मर न जायें आज घायल कागजों की किश्तियाँ ।

बेबसी में बह रहे हैं, हाथ फिर भी मारते हैं
आदमी हैं सिर्फ़ माँसल कागजों की किश्तियाँ ।

बुधवार, 5 अगस्त 2009

घटती जाती दिन-दिन ताकत जेबों की

घटती जाती दिन-दिन ताकत जेबों की ।

घर पर आती नहीं टोकरी सेबों की ।

लगता है महँगाई हमसे लेगी छीन

चाकलेट, टॉफी, बिस्किट मीठे नमकीन ।

आइसक्रीम खाना भी कम हो जाएगा ।

फीका गरमी का मौसम हो जाएगा ।

नहीं खिलौने मिल पायेंगे मनचाहे ।

सपनों पर भी अंकुश होंगे अनचाहे ।

एक-एक करके होती जायेंगी बंद

वे चीज़ें जो बच्चों को हैं बड़ी पसंद ।

यही सोच कर है अपना माथा ठनका

क्या होगा भगवान हमारे बचपन का ?

रविवार, 2 अगस्त 2009

परदे होंगे, हम अलबत्ता देखेंगे

परदे होंगे, हम अलबत्ता देखेंगे ।
बैठ झरोखे 'जग का मुजरा' देखेंगे ।

क्या-क्या है इस नई सदी ने दिखलाया
और न जाने आगे क्या-क्या देखेंगे ।

वक़्त सदाएं देगा जब चौराहे पर,
ऊंचा सुनने वाले नीचा देखेंगे ।

आँख निरंतर खुली रखेंगे, तब जा कर
एक सुनहरे कल का सपना देखेंगे ।

वादा उसका इक मज़बूत इरादा था,
आज मगर वह बोला-"अच्छा, देखेंगे" ।

हमने सिर्फ़ सुना है दुनिया बदलेगी,
लेकिन बच्चे इसे बदलता देखेंगे ।

शुक्रवार, 31 जुलाई 2009

शेष कुशल है

चिट्ठी में बस यही ख़बर लिक्खी केवल है , शेष कुशल है ।

खेत जहाँ थे वहां दूर तक जल-ही-जल है, शेष कुशल है ।

कैसे हैं आसार न पूछो, कब पहुंचेंगे पार, न पूछो

जर्जर नौका, टूटे चप्पू , मांझी शल है, शेष कुशल है ।

सुनते हैं कल रात दस्तकों से दरवाज़े काँप उठे थे

बंद गाँव के हर दरवाज़े की साँकल है, शेष कुशल है ।

पलक झपकते बीत गए हैं बरस कभी ऐसा लगता था

अब अक्सर बरसों जैसा लगता इक पल है, शेष कुशल है ।

बुधवार, 29 जुलाई 2009

ऐसा क्यों होता है कि.....

जब कोई अंग्रेजी लिखने या बोलने में ग़लती करता है, तो इसमें उसका दोष समझा जाता है, लेकिन जब कोई हिन्दी लिखने या बोलने में ग़लती करता है, तो इसमें दोष उस व्यक्ति का नहीं, बल्कि हिन्दी का समझा जाता है ! अंग्रेजी लहजे में ग़लत हिन्दी बोलने से आपका सामाजिक स्तर ऊँचा समझे जाने की सम्भावना ज़्यादा है, लेकिन जैसे ही आप अंग्रेज़ी को हिन्दी लहजे में बोलने की ग़लती करेंगे, आपका सामाजिक स्तर तुरन्त गिर जायेगा । वैसे सबसे अच्छा तो यही होगा कि आप हिन्दी और अंग्रेज़ी दोनों को ही बोलने में गलतियाँ करें। इस से आपको किसी टी वी चैनल पर काम मिलने की पूरी सम्भावना है। लिखने में गलतियाँ होती हों, तो अख़बार के लिए संवाद दाता का काम आप को आसानी से मिल जाएगा ।

शनिवार, 25 जुलाई 2009

कारगिल विजय अभियान

भारतीय सेना के कारगिल विजय अभियान पर
मैंने दस साल पहले एक कविता लिखी थी । उस लम्बी कविता के कुछ अंश यहाँ प्रस्तुत हैं :

ऐसा है जीवट मानो उट्ठे आग की लपट

मान देश का अमोल, ज़िन्दगी का दाम क्या है ?

देश-प्रेम की लगन में बदन सौंप दिया

उनको मालूम नहीं ऐश क्या आराम क्या है ?

छीनने को हक सिखलाने को सबक चले

शत्रु जान ले कि शत्रुता का अंजाम क्या है ?

देश के युवक बेधड़क यही पूछते हैं--

"टाइगर चोटियों पे गीदडों का काम क्या है ?
कायल हुए हैं सभी उनकी बहादुरी के दुनिया में नाम अपना भी मशहूर किया .
खेल तो नहीं था वार झेल के धकेल देना डाल दी नकेल लौटने को मजबूर किया .
खतरा टला है खुशहालियों की आहटें हैं उनकी निडरता ने खतरा ये दूर किया .
दुश्मनों के सारे ही इरादे धुल चाट रहे उनका घमंड खंड-खंड चूर-चूर किया .
एक बार फिर से तिरंगा फहराया वहां शत्रु सेना हारी और हार भी करारी है .
सारे नर-नारी है आभारी आज सैनिकों के देशवासियों के कुछ करने की बारी है .
भारत की भूमि हमें प्यारी है तो क्यों यहाँ पे आपसी लड़ाई है बीमारी है बेकारी है ?
सरहदों पे एक जंग ख़त्म हो गयी मगर भीतरी बुराइयों से जंग अभी जारी है !

गुरुवार, 23 जुलाई 2009

वेंडी बार्कर की कविता का अनुवाद

Wendy Barker’s poem, “At Last”, is as follows,

we swim in the lake
of each other. All night
the current washes rocks

from shore, eases the jagged
places, dissolving stones
of stones into grit, sand,

the yield of siltthat reaches
all the way under this highest of
tides, entire body of water.

अंततः
एक-दूजे के जलाशय में रहे हम तैरते
रात-भर धुलती रही
घुलती रही चट्टान तट पर
धार से । जल-धार से ।
खुरदरे सब स्थल हुए समतल,
घुले पत्थर,
बने बजरी, हुए बालू ।
उच्चतम इस ज्वार में
जल की समूची देह के तल में
तरंगित पंक यूँ पैदा हुआ ।

गुरुवार, 16 जुलाई 2009

घर-बाज़ार

घर में देर-सबेर भी जब पहुँचेंगे आप

हर चेहरे पर पाएँगे अपनेपन की छाप ।

अपनेपन की छाप मगर बाज़ार अलग है ।

मोल-भाव या हानि-लाभ व्यापार अलग है ।

कहँ दधीचि क्या यह सुधार है जीवन-स्तर में ?

संभलो, अब बाज़ार घुसा आता है घर में !

मंगलवार, 14 जुलाई 2009

सोचो

सोचो, सही-ग़लत को ले कर

नोक कलम की पैनी क्यों है ?

बाज़ अगर है बेकुसूर, तो

चिड़ियों में बेचैनी क्यों है ?

रविवार, 12 जुलाई 2009

गौर से देखे कोई

उनके सुख-दुख में बनावट आपकी शामिल रही है ।
उनके दिल की राह ही बस आपकी मंज़िल रही है ।
गौर से देखे कोई तो साफ़ देखी जा सकेगी,
लुप्त कब की हो चुकी पर आपकी दुम हिल रही है ।

सोमवार, 6 जुलाई 2009

काली औरत ने....

काली औरत ने यह लड़की सौ परदों के पार जनी ।

कैसी सुन्दर भोर हुई है निथरी-सुथरी छनी-छनी


दूर-दूर तक पेड़ नहीं, बादल का कहीं निशान था

थका मुसाफ़िर मरुस्थलों में ढूँढ रहा था छाँव घनी .


फिर से आज उड़ान भरेगी मोम-परों वाली चिड़िया

फिर से वहशी हाथ करेंगे उसके घर में आगज़नी .


नन्हे खरगोशों के रोयेंदार जिस्म ज़ख्मी कर के

कितनी धन्य हो गयी है तलवार तुम्हारी रक्तसनी .


जब भी मैं गुलाब की पंखुडियों की बातें करता हूँ,

लोगों की आँखों में अक्सर उग आती है नागफनी .

शुक्रवार, 3 जुलाई 2009

तुम नहीं हो पास

फिर फुहारें लौट आयी हैं मेरी दहलीज़ पर
फिर हवाएँ दे रही हैं दस्तकें इस द्वार पर
फिर फ़ज़ाओं में घुली हैं गंध माटी की, मगर--

तुम नहीं हो पास तो सब व्यर्थ हैं ।

गुनगुनाती छेड़ती बूँदें टपकती हैं इधर
पेड़ सारे सरसराते ही रहे हैं रात भर
बिजलियों ने गगन के ऊपर किये हस्ताक्षर

इस लिखावट का भला क्या अर्थ हैं ?

शुक्रवार, 19 जून 2009

नाच रहे कंकाल

नाच रहे कंकाल, घूमते काले-पीले प्रेत यहाँ ।
अमृतत्व के लिए भटकते हैं ज़हरीले प्रेत यहाँ ।

बरसों से बाधित-पीड़ित हैं इस बस्ती के लोग, सुनो !
है कोई जो मन्त्र-विद्ध कर ले या कीले प्रेत यहाँ ?

भुतहा खंडहरों पर होता निष्कंटक शासन इनका
नहीं बदलने देते कुछ भी बड़े हठीले प्रेत यहाँ ।

दुर्दिन में कुदरत भी देखो, कैसे भेष बदलती है
डायन बन जाती हैं नदियाँ, लगते टीले प्रेत यहाँ ।

विडम्बना प्यासी आँखों की अंधकार में क्या कहिये ?
जिधर उठाई आँख नज़र आये चमकीले प्रेत यहाँ ।

मंगलवार, 16 जून 2009

आज नहीं आयी

आज नहीं आयी, आयेगी कल बारिश ।
इसी तरह हर रोज़ कर रही छल बारिश ।

विरही को तो यह तड़पाती है लेकिन -
हलवाहे की मुश्किल का है हल बारिश ।

बादल आँधी हवा सभी यूँ तो आये
तरसाती ही रही हमें केवल बारिश ।

देख, पपीहे, दीन वचन मत बोल यहाँ
ऐसे नहीं किया करते बादल बारिश ।

नहीं सिर्फ़ तन-मन में ठंडी आग बनी
चूल्हे कई जलायेगी शीतल बारिश ।

लोग कर रहे हैं कुदरत का चीर-हरण
हरियाली लाती जंगल-जंगल बारिश ।

अस्त हो रहा सूरज भी मुस्काएगा
लहराएगी सतरंगा आँचल बारिश ।

रविवार, 7 जून 2009

जून का महीना

बिजली चली गयी हैं, पानी मिलता है कहाँ
ठंडी हवाओं के बिना जीना कोई जीना है ?
जंगल बना है कंक्रीट का जो तप रहा
मन में बेचैनी और तन पे पसीना है ।
पानी पी-पी कर गरमी को सब कोसते हैं
और कहते हैं अभी और पानी पीना है ।
छीना सुख-चैन आया जब से मगर सुनो,
जून का महीना मानसून का महीना है !

शुक्रवार, 5 जून 2009

जहाँ भी गये हो

जहाँ भी गये हो, साथ नफ़रत ले के चले
किया हैं विनाश जहाँ रखा पग तुमने ।
भाले, ताले, तीर, शमशीर औ' ज़ंजीर बने,
सब को दीवारों से किया अलग तुमने ।
पशु या विहग, पेड़-पौधे डगमग हुए,
विष-भरी की धरा की रग-रग तुमने ।
प्लास्टिक की बनी हैं करधनी धरती की,
कितनी लगन से सजाया जग तुमने !

गुरुवार, 21 मई 2009

तौलिया बोला

एक झकाझक साफ़-सुथरा तौलिया
शोरूम से निकला
और बाथरूम में नहीं पहुँचा ।
बल्कि वह यकबयक ऐसी हालत में
देखा गया कि पानी-पानी हो गया ।
ऐसा लगा मानो ख़ुद को ढकने के लिए
कोई तौलिया ढूँढ रहा हो।
हुआ यूँ कि टी वी के बीसियों कैमरों की
चुँधियाती रोशनियाँ उस पर पड़ रहीं थीं
और उसे किसी भ्रष्टाचारी के संग
अदालत में ले जाया जा रहा था।

तौलिया बोला -- "सभी के काम आता हूँ।
ढापता हूँ, पोंछता हूँ, मैं सुखाता हूँ।
सोचने का काम तो इंसान करता है।
सोचना उसका मुझे हैरान करता है।
इतनी हलचल हडबडाहट किसलिए आख़िर ?
कैमरों की चौंधियाहट किसलिए आख़िर ?
मैं भी हूँ पतलून कोई, कोट, शर्ट, कमीज़ ?
देखिये, कुछ सोचिये, मैं तौलिया नाचीज़ ।
यूँ अदालत में न लेकर जाइए मुझको।
कम-से-कम कुछ काम तो बतलाइये मुझको।
कौन-सा मुझको करिश्मा कर दिखाना है ?
फ़ैसला कीजे, मुझे किस काम आना है ?
ढाँप कर चेहरे कभी थकता नहीं हूँ मैं।
कारनामे पोंछ, पर, सकता नहीं हूँ मैं !"

मंगलवार, 12 मई 2009

शिकायत

हम भी कुछ अनजान नहीं हैं ।

"कितना भी समझा लो, लेकिन
बच्चे सुनते नहीं किसी की"--
यही शिकायत होती है ना
हम सब के पापा-मम्मी की ?

खुद कब सुनते हैं, बोलो,
क्या हम उनकी संतान नहीं हैं ?

पढने लिखने की तो हम को
देते हैं दिन-रात हिदायत ।
अगर कभी हम टी वी देखें
तो होती हैंखूब शिकायत ।

कुछ तो सोचो, भला हमारी
आँख नहीं हैं, कान नहीं हैं ?

हम भी कुछ अनजान नहीं हैं !




सोमवार, 11 मई 2009

बाज़ार प्यास का

तपिश बढ़ गयी, गर्मी के दिन आने वाले
कमर कस रहे शीतल पेय बनाने वाले ।
है बाज़ार प्यास का और मुनाफ़ा भारी ।
होड़ लगी, भिड़ने की है पूरी तैयारी ।
ऐसे में "पानी-पानी" करते अज्ञानी ।
इस नादानी पर होते हम पानी-पानी !

गुरुवार, 7 मई 2009

दो हज़ार पंद्रह

सन् दो हज़ार पंद्रह में जब भारत की धरती पर
प्रभु ने दर्शन दिये किसी को पूजा से खुश हो कर,
बोले-- "जो भी कार चाहिए, तुम बस 'ब्रैंड' बताओ
लेकिन पहले मुझको कोई ख़ाली सड़क दिखाओ !"

सोमवार, 4 मई 2009

परिणाम

"बेटे, अब की बार परीक्षा में तू फिर से फ़ेल हो गया !"
"पापा, यह तो दो फेलों का एक अनोखा मेल हो गया ।
इधर दुखी था मैं विज्ञान गणित इंग्लिश के मारे,
उधर आप भी लोक सभा के इस चुनाव में हारे ।"

शुक्रवार, 1 मई 2009

मई दिवस

पहली मई कामगारों का दिन है ।
मज़दूरों के अधिकारों का दिन है ।
तुलसी लछमी कमला घर पर रहतीं
पुरुष कहें ये खाली दिन भर रहतीं।
मन में पीड़ा चिंता उधेड़बुन है
फिर भी अनथक काम करें यह धुन है ।
पूर्वाग्रह यह टस से मस कब होगा ?
महिलाओं का 'मई दिवस' कब होगा ?

शुक्रवार, 24 अप्रैल 2009

छोड़ो छोड़ो

खानपान पहनावा लहजा चाल-चलन
'ग्लोबल' हों; पिछड़ेपन का दामन छोड़ो ।
प्रेमचंद टैगोर भारती औ' ग़ालिब
इनको भूलो, तुलसी औ' कम्बन छोड़ो ।
यानी ज़िन्दा रहने को बेशक रह लो --
लेकिन साँसें दिलो-जिगर धड़कन छोड़ो ।

गुरुवार, 23 अप्रैल 2009

जन्म-दिवस

अपना अगला जन्म-दिवस मैं
कुछ इस तरह मनाऊंगा
घर के आँगन के कोने में
कोई पेड़ लगाऊंगा ।

घर में जो बाई आती है
उसके घर जाऊंगा मैं
खूब मिठाई उसके बच्चों
को दे कर आऊंगा मैं ।

रंगों का डिब्बा भी दूँगा
कापी, पेंसिल, पेन, किताब ।
मेरे अगले जन्म-दिवस की
ऐसी है योजना, जनाब !

सोमवार, 20 अप्रैल 2009

गरम पराठे

मम्मी, आज नाश्ते में मैं
गरम पराठे खाऊंगा ।
उसके बाद गिलास दूध का
गट-गट-गट पी जाऊंगा ।

रोज़ सवेरे जल्दी-जल्दी
होना पड़ता है तैयार ।
छह दिन तक ऐसा होता है
तब जा कर आता रविवार ।

छुट्टी के दिन तो मत रोको
हँसने और हँसाने से ।
सफल आज की छुट्टी होगी
गरम पराठे खाने से !

शुक्रवार, 17 अप्रैल 2009

अपना पथ है ...

अपना पथ है ऊबड़-खाबड़, जग की बँधी-बँधाई लीक ।
क्या कहते हो ? साथ चलोगे ? सोच लिया है ? बिल्कुल ठीक ।

चल खोखे पर कड़क चाय के घूँट भरें, कुछ बात करें
नहीं बोलना तो कम-से-कम बैठेंगे फिर से नज़दीक ।

तू जादूगर-सा शायर है, मन को मोहित करती हैं --
मिसरी जैसी मीठी-मीठी बातें तेरी बड़ी सटीक ।

बड़े नफ़ीस लोग हैं, उनकी महफ़िल में अपना क्या काम ?
उन्हें चाहिए चिकनी-चुपड़ी, अपना तो लहजा निर्भीक ।

मेरा उसको 'पागल' कहना, ठीक वही तेरा ऐलान --
बड़ा फ़र्क है इन दोनों में, है चाहे बिल्कुल बारीक ।

कहाँ ग़ज़ल का ऊँचा रुतबा, कहाँ तेरे बौने अल्फाज़
इसका दामन छू न सकेगा सीख के तू कोरी तकनीक ।

सोमवार, 13 अप्रैल 2009

पाँच छुट्टियाँ

पाँच छुट्टियाँ एक साथ थीं, काम बंद था
था बिल्कुल संयोग मगर हमको पसंद था
यही पूछते थे बाबू, अफ़सर, दारोगा--
'अगली बार बताओ ऐसा फिर कब होगा ?'

शनिवार, 11 अप्रैल 2009

विष्णु जी के लिए...

कलाकार के संघर्षों के साक्षी, तुमने -
अमर मसीहा आवारा की कथा कही है।
गहन विचारों के शिल्पी अप्रतिम अनूठे,
नहीं रहे तुम; 'धरती अब भी घूम रही है' !

गुरुवार, 9 अप्रैल 2009

आज तक क्या कभी...

आज तक क्या कभी लड़े मुर्दे ?
देख, निश्चेष्ट हैं पड़े मुर्दे

ज़िन्दगी की तलाश में कब तक
यूँ उखाड़ेगे हम गड़े मुर्दे ?

नहीं इतिहास कब्रगाह फ़क़त
गो समेटे है यह बड़े मुर्दे ।

बूँद अमृत की एक बेचारी
अनगिनत घेर कर खड़े मुर्दे ।

साँस लेते हैं, चलते-फिरते हैं
ऐसे भी राम ने घड़े मुर्दे ।

जान
फूँकी 'दधीचि' ने इनमें
शब्द थे ये गले-सड़े मुर्दे ।

सोमवार, 6 अप्रैल 2009

अख़बार

मैं भी अब अख़बार पढूंगा ।

साइकिल पर मैं चढ़ लेता हूँ
चित्रकथाएं पढ़ लेता हूँ
सीख गया हूँ इतनी चीज़ें
खुद कहानियाँ गढ़ लेता हूँ ।

रोज़ बदलता रहता है यह,
कैसा है संसार, पढूंगा .

दंगा बाढ़ चुनाव कहीं पर
हड़तालें घेराव कहीं पर
खेलों की है हार-जीत तो
बाज़ारों के भाव कहीं पर .

कैसे चलती है भारत की
चुनी हुई सरकार, पढूंगा .

मैं भी अब अख़बार पढूंगा .

शनिवार, 4 अप्रैल 2009

वो क्या बनेगी ?

क्या छोड़ सब विशेषण कोई क्रिया बनेगी ?
या जग को जगमगाए, ऐसा दिया बनेगी ?
नन्ही अबोध बच्ची यह स्वप्न देखती है--
इक रोज़ वो भी शायद 'मिस इंडिया' बनेगी !

शुक्रवार, 3 अप्रैल 2009

नेता उवाच

कुर्सी के चारों ओर नाच
बेदम हो कर नेता उवाच
फिर शुरू हुआ संघर्ष सुनो
आया चुनाव का वर्ष सुनो
संधान कोई तो बाण करो
बेहतर छवि का निर्माण करो
खोजो खोजो कुछ जनाधार
या झूठा-सच्चा हो प्रचार
लेकिन 'दधीचि' का यही तर्क
प्यारे वोटर, रहना सतर्क !

रविवार, 29 मार्च 2009

आम

बोलो, आम किस तरह खाएँ ?


अगर चूसने लगें इन्हें तो

बह निकलेगी रस की धारा।

दाग़ लगे कपड़ों पर तो चढ़

जाता है मम्मी का पारा।


यही सोचते रहते हैं हम

कपड़ों को किस तरह बचाएँ ?


अगर काट लें चाकू से तो

शायद मुश्किल हल हो जाए।

मगर अटक जायेगी गुठली

कौन चूस कर उसको खाए ?


आम सामने हैं लेकिन हम

देख रहे हैं दायें-बाएँ।


बोलो, आम किस तरह खाएँ ?



शुक्रवार, 27 मार्च 2009

बाल-कविताओं की ज़रूरत

अपने बचपन की ओर मुड़ कर देखता हूँ, तो एक अनुभव विशेष रूप से आनंददायक, गहन और चेतना को सुसंपन्न करने वाला प्रतीत होता है। वह है कविताएँ पढ़ने, सुनने, गुनगुनाने, प्रस्तुत करने तथा उनके विविध रंगों की फुहार से अपने आप को पूरी तरह भिगो लेने का अनुभव। जीवन की ऊर्जा ऊष्मा से ओतप्रोत इस अनुभव ने ही उच्चादर्शों उदात्त मूल्यों के साथ प्रतिबद्धता के संस्कार दिये और भाषा, छंद, यति-गति की सहज-स्वाभाविक पहचान भी दी। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि रस-रंग-ध्वनि-गंध-स्पर्श के माध्यम से संजोये गए अनुभवों के संसार के समानांतर रोज़मर्रा की ज़िन्दगी की तथाकथित छोटी-छोटी बातों के प्रति कौतुक, उत्साह, कौतूहल, जिज्ञासा, विस्मय आदि बालसुलभ अनुभूतियों का एक बेहद निजी संसार होता है, जो बचपन की उन कविताओं से संपृक्त हो कर आज भी स्मृतियों में बसा हुआ है।
निस्संदेह आज की दुनिया दो दशक पहले की दुनिया से बिलकुल भिन्न है। सॅटॅलाइट केबल टेलिविज़न, कम्प्यूटर, मोबाइल इंटरनेट के मध्य पले-बढ़े बच्चे, चौबीस घंटे विज्ञापनों, कार्टून फिल्मों, रंग-बिरंगी लुभावनी उपभोक्ता सामग्री से घिरे रहने वाले बच्चे वैसे हो भी नहीं सकते, जैसे नब्बे के दशक से पहले वाले बच्चे थे। जानकारी का दायरा बढ़ गया है; ध्यान पहले से कम केन्द्रित हो पाता है; भोलापन और मासूमियत घटते जा रहे हैं; तथ्य-विचार, यथार्थ-कल्पना परस्पर गड्ड-मड्ड होने लगे हैं। लेकिन नयी पीढ़ी के बच्चों के लिए कविताओं की ज़रूरत, आप विश्वास करें, अब और भी ज़्यादा है। उन्हें हम अच्छी कविताएँ नहीं देंगे, तो बाजारूपन और उपभोक्तावाद की मानसिकता से ग्रस्त अथवा हिंसा, भ्रष्टाचरण, एवं कट्टरपंथ के संवाहक तत्त्व तथा भाषा के संस्कारों को विकृत करने वाली शक्तियां -- ये सब अपने-अपने कुत्सित इरादों में सहज ही कामयाब हो जायेंगे। इस मायने में बच्चों के लिए अच्छी कविताओं का सृजन पर्यावरण को प्रदूषण रहित बनाने के कार्य जैसा ही सार्थक और महत्त्वपूर्ण है।
बाल-कविताएँ 'बच्चों के लिए' हैं, मात्र इसलिए लय -ध्वनि-भाषा-छंद-मुहावरे आदि के बारे में मानकों स्तर को लेकर हमें समझौता नहीं करना चाहिए। बल्कि कविताएँ ऐसी हों, जो छंदों की विविधता, सरल रोचक शब्द-चयन, मुहावरों के सटीक प्रयोग, ध्वनियों-शब्दों की चमत्कारपूर्ण आवृत्तियों, शब्द-विन्यास के सही स्वरूप आदि की दृष्टि से हिन्दी का व्यावहारिक ज्ञान भी स्वतः करवा दें।

बुधवार, 25 मार्च 2009

शुक्र है

शुक्र है कि बच्चे अभी लड़ते हैं
वे ख़ूब गुस्सा करते हैं
आपस में ही नहीं, माँ-बाप से भी
दूसरों से ही नहीं, अपने आप से भी
उन्हें गुस्सा आता है
अन्दर से निकलता है
चेहरे पर बिखर जाता है
आँखों में हाथों में साफ़ दिख जाता है
कितनी ख़ुशी की बात है
कि हमारे नन्हे-मुन्ने
नहीं होते हमारी तरह
समझौतापरस्त
शातिर काइयाँ और घुन्ने !

रविवार, 22 मार्च 2009

मार्च-अप्रैल की मुकरियां

१.
मार्च में आये, खूब सताये
शाम ढले वह राग सुनाये
रात चिकोटी काटे डट कर

क्यों सखि, साजन ? ना सखि, मच्छर !
२.
फिर उसको लाया अप्रैल
अबके और गया है फैल
बच्चों के तन-मन को कसता

क्यों सखि, साजन ? ना सखि, बस्ता !

गुरुवार, 19 मार्च 2009

आखिर ऐसा क्यों ?

रहस्योदघाटन मुझे प्यारे लगते हैं।
उनके बारे में कुछ किये बगैर
मैं बस उन्हें चाट जाना चाहता हूँ।

आखिर ऐसा क्यों चाहता हूँ मैं
कि नित नयी पोलें खुलें
नित नए भांडे फूटें
नित नए परदे फाश हों?

क्यों टटोलता हूँ अख़बार के पन्नों को
नयी पोलें खुलने की लालसा के साथ?

वैसे कितनी ही ऐसी शर्मनाक बातें हैं
जिन्हें शहर का बच्चा-बच्चा जानता है
वे पुरानी पोलें हैं जो पहले ही खुली हैं।

उनके बारे में भी मैं कुछ नहीं करता।
सवाल तो यह है कि मैं कुछ करना भी चाहता हूँ क्या?

या फिर बिल्ली की तरह
लपालप लपालप
दूध-मलाई चाटना ही मुझे अच्छा लगता है
ताकि अपनी लसलसी जीभ
को मूंछों पर फेरता रह सकूं!

सोमवार, 16 मार्च 2009

बात करती है नज़र....

बात करती है नज़र, होंठ हमारे चुप हैं ।
यानी तूफ़ान तो भीतर है, किनारे चुप हैं ।

ऐसा लगता है अभी बोल उठेंगे हँस कर
मंद मुस्कान लिए चाँद-सितारे चुप हैं ।

उनकी खामोशी का कारण था प्रलोभन कोई
और हम समझे कि वो खौफ़ के मारे चुप हैं ।

बोलना भी है ज़रूरी सांस लेने की तरह
उनको मालूम तो है फिर भी बेचारे चुप हैं।

भोर की वेला में जंगल में परिंदे लाखों,
है कोई ख़ास वजह सारे के सारे चुप हैं।

जो हुआ, औरों ने औरों से किया, हमको क्या ?
इक यही सबको भरम जिसके सहारे चुप हैं ।

गुरुवार, 12 मार्च 2009

काश !

सूखी मात्र त्वचा होती, ज़िन्दगी नहीं
और छेद बस दांतों में बनते, बाबा !
अच्छा होता, अगर हमारे जीवन में
दाग़ सिर्फ़ कपड़ों पर ही लगते, बाबा !

मंगलवार, 10 मार्च 2009

नारी है या....?

चकाचौंध विज्ञापन की
साबुन-क्रीम प्रसाधन की
देखी, तो 'दधीचि' बोले--
"कोई तो रहस्य खोले,
सदा स्नान-रत आधुनिका
नारी है या सिर्फ़ त्वचा ?"

रविवार, 8 मार्च 2009

खिलते हैं फूल

फागुनी हवाओं की जो रुनझुन धुन सुनी
खिलते हैं फूल, भँवरे भी मंडराते हैं
अब के बरस भँवरे तो परे जा रहे हैं
रूठते हैं और फूल उनको मनाते हैं
चुन-चुन बुनते हैं मीठे-मीठे सपने-से
उनके कानों में गीत नए-नए गाते हैं--
"अच्छा है शगुन, सुन, गुन-गुन मत कर,
आजा एक सांझा सरकार हम बनाते हैं !"

शुक्रवार, 6 मार्च 2009

घटनाओं से इतर चीज़ें

घटनाओं से इतर जो चीज़ें हैं
उनके लिए स्थान और समय
तय कर पाना संभव नहीं रहा।
घटनाएँ हर जगह दनादन घुसी आती हैं
घटनाओं से इतर चीज़ें
सन्न रह जाती हैं।
घटनाएँ खुल कर घटती हैं
और घटनाओं से इतर चीज़ें
घटती चली जाती हैं
मिटने लग जाती हैं।
ऐसी सब चीज़ें अखबारों से बाहर हैं
टी वी से बेघर हैं।
घर में बाज़ारों में
सड़कों-चौराहों पर
कोनों में दुबकी हैं
घटनाओं से इतर चीज़ें।
ये सारी चीज़ें यदि गुम भी हो जायेंगी
तो भी अखबारों में स्थान नहीं पाएंगी।
ऐसा हो जाने पर
हर ओर केवल
घटनाएँ रह जायेंगी!

बुधवार, 4 मार्च 2009

अपराधी

पार्क में पेड़ प्रतीक्षा कर रहे हैं और पौधे बालकों की तरह ठुनक रहे हैं। इन दिनों पेड़ पौधों को तीखी भूख लगने से पूर्व ही, पूर्व दिशा से उभर कर आने वाली सुनहरी थाली सामने जाती है। फिर भी उन्हें आहार की प्रतीक्षा तो रहती है। इधर निकुंज बाबू अपने घर से निकल पड़े हैं। सुबह सवेरे घर के भीतर बैठे रहने से उन्हें भी पौधों जैसी ही बेचैनी होने लगती है। उन्हें अपने बीच पा कर पेड़- पौधे आश्वस्त होते हैं। उनका आहार उन्हें मिलता है तो वे खिलखिलाते हैंइन दिनों यानि मार्च-अप्रैल में वे खूब खिलखिलाते हैं। निकुंज बाबू अपने नितांत निजी संसार में पहुंचे हैं। गिलहरियाँ, चिड़ियाँ, तोते, गुलाब, गेंदा और ऐसे अनेक फूल और परिंदे जिनके नाम उन्हें मालूम नहीं हैं - इन सब के बीच इन के साथ अपने विशेष रिश्ते का एहसास उनका भी संबल है। उसी तरह जैसे बालकों-से ठुनकने वाले पौधों को रोज़ सुबह उनका इंतजार रहता है।
निकुंज बाबू के दिन की इस शुरुआत से ऐसा समझें कि यह वरिष्ठ नागरिक दुनिया की सच्चाइयों से बेखबर रहता होगा। बल्कि उनकी दिनचर्या का अगला कदम अख़बार पढ़ना ही है। बहरहाल, अप्रैल के जिस दिन का हम ज़िक्र कर रहे हैं, वह और दिनों कि अपेक्षा कुछ ज़्यादा ही यादें लेकर आया है। उस ज़माने की यादें जब उनकी ज़िन्दगी घटनाओं और एक्शन से भरपूर थी। अब यह भी उन्हें याद नहीं रहा कि स्मृतियों की इस बरसात की पहली बूँद ने कैसे उन्हें छुआ था। दिमाग़ पर थोड़ा ज़ोर दे कर सोचा तो उन्हें याद आया कि अख़बार पर तारीख पढ़ते हुए उनकी यादों में जीवन के वसंत का वह दिन लौट आया जब वे स्कूल में पढ़ते थे। उनकी कक्षा में गरिमा नाम की एक लड़की थी, जिसका नाम बताने का वैसे कोई मतलब नहीं, क्योंकि इस नाम से उन्होंने उसे कभी बुलाया ही नहीं। वे तो हमेशा उसे 'मोटी' ही पुकारते थे। ऐसे नामों के लिए कोई तर्क हो भी सकता है, पर अक्सर ये यूँ ही व्यक्तित्व को परिभाषित-सा करने वाले चिढ़ाने के निश्चित तरीके के रूप में इस्तेमाल होते हैं। गरिमा इस नाम से ख़ास तौर पर इसीलिए चिढ़ती भी थी।
एक बार उसने निकुंज से एक किताब मांग कर ली। तीन दिन बाद जब पुस्तक वापस आयी, तो भीतर के मुखपृष्ठ पर छपे हुए कुछ अक्षरों के नीचे पेंसिल से लिखी कुछ संख्याओं पर निकुंज की नज़र पड़ी। एक से चौदह तक। यह कोई संकेत या संदेश था। संख्याओं के क्रम से उसने अक्षरों को जोड़ा। संदेश अंग्रेज़ी में धन्यवाद का था, यानी टी-एच--एन-के-एस-टी--एन-आई-के-यू-एन-जे, 'निकुंज को धन्यवाद' इसके लगभग दो सप्ताह बाद की बात है। निकुंज ने नोट-बुक में एक पृष्ठ खोल कर गरिमा की ओर वह नोट-बुक बढाई। "क्या है?" उसने पूछा। "ख़ुद देख लो। आज मैं तुम्हारी बुद्धि की परीक्षा के लिए एक नया रोचक खेल लाया हूँ।" गरिमा ने देखा - सामने पृष्ठ पर कुछ खाली वर्गाकार आकृतियाँ कतार में बनी हुई थीं और उन रिक्त स्थानों के ऊपर अलग-अलग संख्याएँ लिखी हुई थीं---१६-१८--१२--१५-१५-१२। तर्कहीन, बिना किसी क्रम के। निकुंज ने अनुभव किया कि थोडी उत्सुकता जाग रही है, तो आगे बोला, " इन रिक्त स्थानों को भर सको, तो तुम्हें पता चल जाएगा कि मैं तुम्हें क्या बनाना चाहता हूँ।" फिर दो क्षण रुक कर बोला, " तुम्हारी मदद के लिए एक संकेत दूं?" इस तरह चुनौती के बाद प्रलोभन भी प्रस्तुत कर दिया। कुछ देर सोचने के बाद गरिमा ने पूछा, " हाँ, बताओ। बस, संकेत करना; उत्तर मत बताना।" " देखो, इसका तरीका कुछ-कुछ वैसा ही है, जैसा तुमने मेरी इंग्लिश की रीडर के टाइटल पेज पर अपनाया था।" फिर थोड़ा रुक कर उसने जोड़ा, " मैंने तो एकदम इसका उत्तर खोज लिया था।" गरिमा को चिढाने के लिए इतना काफी था। आज निकुंज इतना सचेत था कि उसे 'मोटी' कह कर बुलाने से बच रहा था। लेकिन इस बात पर गरिमा का ध्यान ही नहीं गया। पेंसिल लेकर वह खाली स्थान भरने में जुट गई। तरीका सीधा-सादा था--'एक' के लिए '', 'दो' के लिए 'बी', 'तीन' के लिए 'सी' और इसी तरह 'छब्बीस' के लिए 'ज़ेड' इस तरह अक्षर भरने थे। इस बीच निकुंज ने कहा कि इन वर्गों को क्रम से भरना ज़रूरी नहीं है, तो गरिमा का काम और भी आसान हो गया। लेकिन एक बार सारे अक्षर भरने के बाद उसने जो पढ़ा, तो -पी-आर-आई-एल-ऍफ़---एल यानी 'april fool' पढ़ते ही वह उसी पेंसिल को हथियार बना कर निकुंज की ओर लपकी, लेकिन वह 'मोटी', 'मोटी' कह कर उसे चिढ़ाता हुआ भागा ज़्यादा दूर नहीं, क्योंकि पीछे मुड़ कर उसे गरिमा का गुस्से से भरा चेहरा, हंसी और नाराज़गी के मिले-जुले भाव व्यक्त करती उसकी आँखें भी तो देखनी थीं।
बात तो छोटी-सी थी, पर निकुंज को उन आँखों में गुस्सा कुछ ज्यादा और हंसी बहुत थोड़ी दिखाई दी। फिर उसने निकुंज को कुछ ऐसा कह दिया, जिसे वह आज तक भूल नहीं पाया है। " यही बनाओगे तुम मुझे! और तुमसे उम्मीद भी क्या की जा सकती है ?" यूँ कहा गया, मानो अपने आप से कहा हो। इसके बाद वह पांच-छः रातों तक ठीक से सो नहीं पाया था। गरिमा की आँखों का वह अचानक बुझा-बुझा भाव और उसकी वह निराशापूर्ण आत्मालाप जैसी टिप्पणी उसके मन को कई दिनों तक पल-पल सालते रहे।
इससे पहले भी एक बार खेल-खेल में उसने कुछ बच्चों के साथ मिल कर एक योजना बनाई थी। दरअसल, रोहित को कचरे के ढेर में लोहे का एक खोल मिला था, जिसके आगे लेंस लगा था। संभवतः किसी वाहन के आगे रोशनी के लिए बनाया गया होगा। बच्चों ने उसे अपनी कल्पना से कैमरा मान लिया। फिर निकुंज ने योजना बनाई, जिसके अनुसार गरिमा को बुला कर वह जादू का कैमरा दिखाया गया। थोड़ी-सी कोशिश से निकुंज ने उसे फोटो खिंचवाने के लिए तैयार कर लिया। वह कुर्सी पर बैठी और रोहित अपने 'कैमरे' के साथ उसके सामने छह फीट की दूरी पर खड़ा हो गया। निकुंज कुर्सी के पीछे था और तीन-चार लड़के-लड़कियां जादू का खेल देखने के लिए मौजूद थे। कैमरे में कुछ क्षण झाँकने के बाद योजना के अनुसार रोहित ने कहा, " गरिमा, तुम ज़रा एक बार खड़ी हो जाओ और कैमरे के लेंस पर नज़र टिकाये रखो। " गरिमा ने निर्देश का पालन किया। " ठीक है," रोहित बोला, " अब तुम इसी तरह लेंस पर नज़र टिकाये हुए बैठ जाओ।" ज्यों ही गरिमा ने बैठना चाहा, धड़ाम से फर्श पर गिरी, क्योंकि कुर्सी निकुंज ने पीछे से चुपचाप खिसका ली थी। फिर तो 'मोटी', 'मोटी' का शोर हुआ और बच्चों ने हँस-हँस कर इस तमाशे का खूब आनंद लिया। उस दिन भी गरिमा ने गुस्से से आँखें तरेर कर निकुंज को देखा था। हँसते-हँसते अचानक वह चुप-सा हो गया था। उन आँखों के दर्द और अपमान के भावों ने उसे तीन-चार रातों तक सोने नहीं दिया
'एप्रिल फूल' वाली घटना के बाद एक और छोटी-सी घटना हुई थी, जो पहले वाली घटनाओं की तरह योजनाबद्ध नहीं थी, बल्कि अचानक हो गयी थी। स्कूल में वार्षिक समारोह की तैयारी पूरी हो चुकी थी और कार्यक्रम की अंतिम रिहर्सल प्राचार्य के सामने प्रस्तुत करने के लिए सब बच्चे तैयार थे। नीली फ्राक और सफ़ेद ब्लाउज में गरिमा खुश थी। टीचर से अनुमति लेकर वह पानी पीने नल की ओर गयी, तो वहां निकुंज खड़ा था। जैसा बच्चे अक्सर करते हैं, पानी पीकर गरिमा ने पानी के छींटे उसके कपडों पर डाल दिए। निकुंज के हाथ में एक फाउंटेन पेन था, जो उसे दो दिन पहले ही उपहार में मिला थाउसने आव देखा ताव, तुंरत प्रतिशोध के लिए नीली स्याही के छींटे गरिमा के कपड़ों पर डाल दिए। बाद में टीचर के बार-बार पूछने और डांटने पर भी उसने निकुंज का नाम नहीं बताया था। पर उसकी आँखों में जो खामोशी और पीड़ा का भाव था, वह इतना मर्मस्पर्शी था कि निकुंज उन आँखों के बिम्ब को महीनों तक मन से हटा नहीं पाया था। उसका किसी काम में मन नहीं लगता था। उस दिन के बाद उसने कभी गरिमा को 'मोटी' नहीं कहा। कहता भी तो कैसे ? गरिमा ने तो उसके बाद उससे कभी बात ही नहीं की।
उस दिन को याद कर के निकुंज बाबू की आँखें सजल हो आयीं। यह अचरज की बात थी। इस घटना को आधी सदी से भी ज्यादा अरसा हो गया था। अगर वह किसी को यह सब सुनाएँ, तो आज उनकी आँखों का सजल होना कोरी भावुकता ही कहलायेगा। पर उनके मन में चुभे हुए कांटे की-सी यह पीड़ा पुरानी पड़ती ही नहीं।
निकुंज बाबू के हाथ में अख़बार अभी तक यूं ही था। इसी पर अप्रैल की तिथि पढने के बाद वे यादों में खो गए थे। अपने आप को ज़रा सँभाल कर उन्होंने अख़बार की ख़बरों पर सायास ध्यान केन्द्रित करना चाहा। तीसरे पृष्ठ पर एक समाचार ने बरबस उनका ध्यान आकृष्ट किया। किसी युवती को राह चलते रोक कर एक युवक ने उसके चेहरे और कपड़ों पर तेजाब डालने का प्रयास किया था। निकुंज बाबू सोच में डूब गए। स्याही और तेजाब में फ़र्क होता है, लेकिन फ़र्क सिर्फ पीड़ा, नुकसान या अपमान का ही नहीं होता। वह तो सब की समझ में ही जाता है। एक और बहुत महीन अंतर भी होता है। कोरी भावुकता से बच कर रहना एक स्थिति है और निहायत संवेदनहीन हो जाना दूसरी स्थिति। व्यवहार में हम दोनों का अंतर नहीं बनाये रख सकते हैं। हमें देखना चाहिए कि हम सजल आँखों वाली भावुकता से बचे रहने की सावधानी में अनजाने ही भीतर से बिलकुल निर्मम और संवेदनारहित तो नहीं होते जा रहे हैं। निकुंज बाबू उस अपराधी युवक की बात फिलहाल नहीं सोच रहे हैं, जिसे अपराधी के रूप में पहचान लिया गया है। वे तो हमारे-आपके जैसे उन लोगों की बात सोच रहे हैं, जो अख़बार से मिली इस सूचना को ग्रहण करेंगे और किसी भी तरह की भावुकता से बच कर रहेंगे।

सोमवार, 23 फ़रवरी 2009

विज्ञापन-संदेश

खाना पैकेट-बंद चिप्स तुम, सीधे आलू कभी चखना
बाइक से उतरे, तो पैदल चलने पर टूटेगा टखना।
इंसानों को जूतों, कपड़ों, त्वचा, केश से सदा परखना।
दृष्टिकोण चाहे जैसा हो, ब्रश का कोण ठीक ही रखना।

शनिवार, 21 फ़रवरी 2009

मैं क्यों लिखता हूँ? (दूसरा भाग)

विगत दो दशकों में हमारे सामाजिक-सांस्कृतिक परिदृश्य में कुछ ऐसे परिवर्तन आये हैं जिन्हों ने हमारी जीवन-शैली को प्रभावित करने के साथ-साथ हमारे दृष्टिकोण, मूल्यों, प्रवृत्तियों और चिंतन-पद्धतियों तक को बदल डाला है। पीढ़ियों के आपसी संपर्क-सूत्रों, पारिवारिक संबंधों तथा समूहों के आपसी समीकरणों में भी महत्त्वपूर्ण उलटफेर हो रहे हैं। परंपरा की हमारी अवधारणा और उसके प्रति हमारी दृष्टि भी अब पहले जैसी नहीं रही हैं। स्थूल परिवर्तनों का लेखा-जोखा तो तथ्यात्मक सूचना-स्रोतों से मिल जाता है, परन्तु मूल्यों और दृष्टियों में आ रहे सूक्ष्म परिवर्तनों के वास्तविक स्वरूप को पहचानने का दुष्कर कार्य साहित्यकारों की ज़िम्मेदारी है। अपने समय की धड़कनों को सुन कर और जानी-अनजानी आंतरिक तथा बाहरी शक्तियों द्वारा परिचालित व्यक्तियों के विविध क्रिया-कलापों की सामूहिकता की नब्ज़ पर हाथ रख कर यह पहचानना कि वस्तुतः किस स्तर पर कहाँ क्या और क्यों हो रहा है --एक बहुत बड़ी चुनौती है।
हमारे सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश में आज जो प्रवृत्तियां ज़ोर पकड़ रही हैं, उनके कारण स्वस्थ साहित्य की पहुँच निरंतर सीमित होती जा रही है। इसके बावजूद अभी हमारी जिजीविषा, जीवन - मूल्यों के प्रति आस्था और इंसानियत की गरिमा का अभी पूरी तरह क्षरण नहीं हुआ है। साहित्य का आधार अभी सुरक्षित है और जीवन को अधिक सुंदर तथा जीने योग्य बनाने की उसकी सामर्थ्य पर मुझे भरोसा है। बल्कि यह बात मेरे भीतर अटल विश्वास की तरह स्थापित है।
लेखन-कर्म जितना आनंद-दायक अनुभव है, लेखन के बाद पुस्तक के पाठकों तक पहुँचने की सारी प्रक्रिया, कम से कम हिन्दी-जगत में, उतना ही पीड़ादायक अनुभव है। किसी भी लेखक को साहित्य-क्षेत्र में बने रहने के लिए इस दुखद स्थिति को बार-बार झेलना ही होता है। चलिए, प्रकाशक तो, ख़ैर, व्यापारी होता है; समीक्षा तो व्यापार नहीं। परन्तु लगभग शत-प्रतिशत समीक्षा प्रायोजित होती है। क्या यह शर्मनाक स्थिति नहीं है?
हमें लेखक के रूप में पहचाना जाये या हमारी रचनाएँ पढ़ी और पसंद की जाएँ, तो यह हमें अक्सर किसी उपलब्धि जैसा प्रतीत होता है। एक मायने में यह सही भी है। पर मुझे यह एहसास होने लगा है कि साहित्य व संस्कृति के क्षेत्र में कार्यरत व्यक्तियों की व्यक्तिगत प्रतिभा के कायल होने के साथ-साथ हम अगर इन उपलब्धियों की सामूहिकता को समझें, उसे स्वीकार करें और उस पर जोर दें तो बेहतर होगा। वैसे देखा जाये तो जो हमारा मौलिक लेखन कहलाता है, वह हमारी व्यक्तिगत प्रतिभा की छाप के बावजूद बहुत हद तक हमें अपनी परंपरा, विरासत, अध्ययन, सामाजिक अनुभवों और सोचने-समझने की समाज से प्राप्त हुई पद्धतियों से ही निर्मित होता है।

शनिवार, 14 फ़रवरी 2009

मैं क्यों लिखता हूँ ? (पहला भाग)

कई बार हम यह मान बैठते हैं कि हमारे आसपास की चीज़ें और स्थितियां जैसी हैं वैसी की वैसी बनी रहें तो यह उचित भी है और सुविधाजनक भी। हम सोचने लगते हैं कि इसमें हर्ज़ भी क्या है ? क्या परेशानी है ? ऐसे में हम यह भूल जाते हैं कि इन चीज़ों और स्थितियों को अगर वैसे का वैसा छोड़ दें तो ये वैसी नहीं रहेंगी बल्कि ख़राब होने लगेंगी; इनमें विकृतियाँ, सड़न और दुर्गन्ध समा जाएंगे। हम स्वयं चीज़ें नहीं बल्कि सचेत, संवेदनशील, सोचने-समझने वाले इंसान हैं। हमारा हस्तक्षेप चीज़ों और स्थितियों को बेहतर बनाने एवं उनके सकारात्मक पक्षोंको बनाए रखने के लिए ज़रूरी है। यह निहायत ज़रूरी है कि हम हस्तक्षेप करें-- विचार से करें,चेतना के विस्तार से तथा ज़्यादा परिपक्व होकर। सारे मानव-समाज के लिए, स्वयं अपने लिए, अपने देश, नगर-गाँव और पूरे माहौलके लिए यह ज़रूरी है। अगर बदलाव की ज़रूरत ही महसूस हो और बदलाव होने का विश्वास ही हो, तो किसी भी तरह का सांस्कृतिक-रचनात्मक कर्म व्यर्थ हो जाएगा। कविता-कहानी लिखना मेरी दृष्टि में इसी तरह का एक सार्थक हस्तक्षेप है।

चाहे यह तय है कि अपने व्यक्तिगत-सामाजिक जीवन के यथार्थ से जुड़ा हुआ रचना-क्रम ज़्यादा महत्त्वपूर्ण है, फिर भी किसी--किसी स्वीकृत आदर्श या ऊँचाई की ओर प्रस्थान का उपक्रम कवि या लेखक की रचनाओं में मौजूद रहता है। बदलाव की जिस कोशिश का मैंने अभी ज़िक्र किया है, वह किन्हीं जीवन-मूल्यों और आदर्शों के सन्दर्भ में ही सार्थक हो सकती है। ये कोई बड़े, उदात्त, क्रन्तिकारी, रामबाण-तुल्य या चमत्कारपूर्ण आदर्श नहीं, बल्कि रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में अपनाए जाने लायक ऐसे दिशा-निदेशक स्वस्थ मूल्य हैं, जो अपने समाज की पूर्ववर्ती पीढ़ियों द्वारा इतिहास के लम्बे अरसे के दौरान विकसित किये गए हैं और परंपरा या विरासत के रूप में हमें आज उपलब्ध हें

ये मूल्य और आदर्श बेहद सीधे-सादे और सामान्य लगने के बावजूद आधारभूत हें और अत्यंत महत्त्वपूर्ण हें। जैसे सहिष्णुता और सहनशीलता दोनों ही बातें आज की स्थितियों में ज़्यादा ज़रूरी हो गयी हें। समाज में, परिवार में, देश में, संसार में अपने से इतर जो ' दूसरे' हैं, जिन्हें हम 'दूसरे' मानते रहते हैं, उनके प्रति स्वागत और खुलेपन का दृष्टिकोण, उनके लिए स्थान छोड़ने उनका ध्यान रखने की प्रवृत्ति -- इन बातों की आज ज़रुरत है। डर, असुरक्षा, बेचैनी, छीनाझपटी हो या किन्हीं अन्य भीतरी कमज़ोरियों अथवा बाहरी दबावों से उपजी आक्रामकता, असहिष्णुता, नफरत और वहशीपन हो-- इन सबसे निजात पाई जा सकती है। इसी विश्वास और आस्था की डोर से बांध कर कविता, कहानी, लेख अदि लिखना मुझे सार्थक ही नहीं, अनिवार्य लगने लगता है।


स्थितियों में बदलाव लाने के उद्देश्य से किया गया किसी भी तरह का हस्तक्षेप तब तक सार्थक नहीं हो सकता, जब तक उसके पीछे स्थितियों की ठीक-ठीक समझ भी काम कर रही हो। आज के माहौल में समस्या सिर्फ शोषण, अन्याय, अत्याचार आदि के स्थूल रूप से पहचाने जा सकने वाले विविध रूपों की ही नहीं है, बल्कि हमारी चेतना, जीवन-दृष्टि और संवेदना के विस्तार और गहराई के ख़िलाफ़ काम करने वाले उन सूक्ष्म दबावों तथा छिपे हुए कारकों की भी है, जो केवल हमारी चेतना को सीमित करते हें, बल्कि परोक्ष रूप में उसे विकृत भी करते रहते हें।ऐसे हालात में स्थितियों की ठीक-ठीक समझ बनाना और उनके पूरे परिप्रेक्ष्य को ध्यान में रख पाना पहले से कहीं ज़्यादा दुष्कर हो गया है।


गुरुवार, 12 फ़रवरी 2009

बर्फ़ के ख़िलाफ़

बर्फ़ के ख़िलाफ़ क्या किया जाए ?
पत्थर बन चुकी बर्फ़ के ख़िलाफ़ क्या किया जाए ?
या तो ऐसा करें
कि उसके ठोस रपटीले सीने पर बीचोंबीच
मज़बूती से नोकदार सुआ रख कर
प्रहार करें
करते चले जायें
जिससे वह टूटे, कमज़ोर हो
इससे चाहे जितना भी शोर हो।
या फिर ऐसा कर सकते हैं
चुपके से बर्फ़ के माहौल में
थोड़ी सी आंच भर सकते हैं
यूँ उसके महातुष्ट रपटीले सीने पर
ऊष्मा के स्पर्श भरा हाथ धर सकते हैं
ऐसा कर देने से
पथरायापन खो कर
पानी-पानी हो कर
बदलेगी बर्फ़
पत्थर बन चुकी बर्फ़ के ख़िलाफ़
कौन-सा तरीका अपनाएं ?
बर्फ़ को तोड़ें या पिघलाएं ?