शुक्रवार, 25 दिसंबर 2009
चेहरों का माहिया
चेहरे प्रतिमाओं के ।
छंद हैं ये पत्थर पर
लिक्खी कविताओं के ।
चेहरे पर दो आँखें ।
उड़ते बनपाखी की
फैली हुई हैं पाँखें ।
चेहरे क्यों उतर गये ?
दांत दुश्चिंता के
भीतर तक कुतर गये ।
चेहरे की लकीरों में ।
दर्द रेखांकित है
बूढी तस्वीरों में ।
चेहरों में परिवर्तन ।
होगा फिर नाटक का
इक और खुला मंचन ।
चेहरे भ्रमजाल बने ।
ये कभी नारायण
कभी नर-कंकाल बने ।
चेहरों का जंगल है ।
घना कुहरा है कभी
कभी छाया हुआ बादल है ।
चेहरे फिर सख्त हुए ।
प्यार विकलांग हुआ
रिश्ते हैं दरख़्त हुए ।
चेहरों की एल्बम है ।
खाली इक पृष्ठ पड़ा
कि अधूरी सरगम है ।
शुक्रवार, 18 दिसंबर 2009
धूप ज़रा मुझ तक आने दो
सुनो, शीत से काँप रहा हूँ
तन बाँहों से ढाँप रहा हूँ
कैसे राहत मिल सकती है
सूरज से मैं भाँप रहा हूँ ।
नहीं मूँगफली भुनी हुई, बस
थोड़ी गरमाहट खाने दो ।
कब से आगे खड़े हुए हो
बीच में आ कर अड़े हुए हो
खूब समझते हो सारा कुछ
फिर भी चिकने घड़े हुए हो ।
ऐसा क्या है ? मान भी जाओ,
जाने दो, यह ज़िद जाने दो ।
खरी बात, फ़रियाद नहीं है
क्या तुमको यह याद नहीं है ?
धूप हवा सब के साँझे हैं
यह कोई जायदाद नहीं है !
किस्सा ख़त्म करो, अब मुझको--
भी अपना हिस्सा पाने दो ।
धूप ज़रा मुझ तक आने दो ।
मंगलवार, 15 दिसंबर 2009
रात दिसंबर की
चींटी की मानिंद चल रही काली रात दिसंबर की ।
खोई है अतीत में फिर भी गूँज रही उसकी आवाज़
कैसी थी वह हाथ से छूटी थाली रात दिसंबर की ?
कमरा, बिस्तर, टेबल, कुर्सी औ' उदास-सी दो आँखें
इतना कुछ फिर भी लगती है ख़ाली रात दिसंबर की ।
ठिठुरे खड़े पेड़ गुमसुम है आसमान भी जाग रहा
भूखे पेट मजूर को लगती गाली रात दिसंबर की ।
ऐसी ही थी रात कि जो अब तक गरमाती है मुझको
यादों के बक्से में खूब सँभाली रात दिसंबर की ।
सोमवार, 7 दिसंबर 2009
अंतराल
रहे होंगे
उन्हें इस प्यारी धरती को
मेरे हवाले कर के आखिर जाना पड़ा .
मेरे बच्चों के बच्चे
कितने विवश और असहाय होंगे
कैसी धरती होगी
जिसे मैं उनके हवाले कर के जाऊँगा !
इस अंतराल में कोई विवश और असहाय नहीं है
तो वह मैं हूँ !
बुधवार, 2 दिसंबर 2009
'लम्बर' वाली पर्ची, सन्दर्भ भोपाल गैस काण्ड
कितनी बार पेश कर- कर के जेब में डाली पर्ची ।
बिल्कुल फटने वाली है ये 'लम्बर' वाली पर्ची ।
गैस हवा में डैने फैलाये थी डायन जैसे
फन फैलाये घूम रही ज़हरीली नागन जैसे
अपनी साँसें भी लगती हैं अपनी दुश्मन जैसे ।
लुट कर यूँ खोखले हुए, हों खाली बर्तन जैसे ।
हाथ हमारे आयी है तो बस ये खाली पर्ची ।
बीमारी ने इस कमज़ोर बदन में सेंध लगाई
भूख-प्यास के मारे अपनी जान गले तक आई
तब धकियाने वालों ने ये पर्ची हमें थमाई
इधर दिखाई, उधर दिखाई, कितनों से पढवाई ।
बिना दवाई राशन के लगती है गाली पर्ची ।
जो फ़रियाद करे वो जा कर लाठी-गोली खाए
उस डायन से बढ कर निकले, जो भी मिलने आए
स्वारथ के भूखे इन गलियों में आ कर मंडराए
कई दिनों तक सिर्फ़ अँगूठे कागज़ पर लगवाये ।
वे ही लोग आज कहते हैं ये है जाली पर्ची ।
कितने और तरीकों से है हमें मारना बाकी ?
ज़िम्मेदारी जिन लोगों पर है अपनी बिपदा की
उन पर हाथ कहाँ डालेगी कोई वर्दी खाकी ?
कम-से-कम मिल जाए हमको अपना चूल्हा-चाकी ।
ले लो हमसे वापस अपने जैसी काली पर्ची ।
बिल्कुल फटने वाली है ये 'लम्बर' वाली पर्ची ।
सोमवार, 30 नवंबर 2009
वे खुश हुए
खा गयी हरियालियाँ सब रेत, तब वे खुश हुए ।
मार कर कुल्हाड़ियाँ स्वयमेव अपने पाँव पर
बन गया इन्सान जिंदा प्रेत, तब वे खुश हुए ।
रविवार, 22 नवंबर 2009
आज भला मैं क्यों उदास हूँ ?
पहना नया गरारा मैंने
'भैया, सुनो' पुकारा मैंने ।
बोले, 'होम वर्क है करना,
डांट पड़ेगी मुझको वरना।'
नहीं देखते मुझको बिल्कुल,
मैं बस उनके आसपास हूँ ।
इसीलिये तो मैं उदास हूँ ।
पापा को दफ़्तर जाना था
काम बहुत सा निबटाना था ।
मम्मी खड़ी रसोईघर में
पड़ी नाश्ते के चक्कर में ।
वैसे दोनों कहते हैं, मैं--
उनके जीवन की मिठास हूँ ।
फिर भी देखो, मैं उदास हूँ !
शुक्रवार, 13 नवंबर 2009
कवच नहीं बन सके...
काँटों से भर गए बिछौने बच्चों के ।
दुगनी लगन काम की, तिगुना लाभ मिले,
दाम मजूरी के हैं पौने बच्चों के ।
दुनियादारी की इन ऊँची बातों से
सपने हो जायेंगे बौने बच्चों के ।
बन कर कल असलियत सामने आएँगी,
बंदूकें हैं आज खिलौने बच्चों के !
ग़ज़ल
"ठीक है, ऐसा हुआ, तो क्या हुआ?"
अपना मुस्तकबिल लगा था दाँव पर,
कितनी आसानी से ये सौदा हुआ !
ज़िक्र तक उस बात का आया नहीं,
आपका चेहरा है क्यूँ उतरा हुआ?
बात कल ऐसी कही मैंने कि वो
आज भी है सोच में डूबा हुआ ।
लब हिले उसके तो मैं समझा नहीं
वो उठा था 'अलविदा' कहता हुआ ।
आ रहा है आप की जानिब, जनाब!
बेअदब सैलाब ये बढ़ता हुआ ।
था तकाज़ा फ़र्ज़ का, बस इसलिए?
आप ही कहिये, ये क्या मिलना हुआ?
बुधवार, 11 नवंबर 2009
जनादेश
फिर सभी को बैठने की हड़बडी है ।
ज़रा रुक कर वोट का संदेश समझें
अब ज़रूरत भी भला किसको पड़ी है ?
ये निबट लें तो शुरू हो काम कोई
सोच में डूबी हुई जनता खड़ी है !
गुरुवार, 5 नवंबर 2009
सत्रह हज़ार बधाइयाँ
'लूज़' को बदल देता 'विन' में, कमाल है ।
गिन-गिन रन लेते रहने के बावजूद
हारने लगे जो टीम, लेता वो सँभाल है ।
गेंद चाहे तेज़ चाहे 'स्पिन' हो, लेकिन उसे
नहले पे दहला लगाना तत्काल है ।
बात तो ज़रूर कोई उसकी क्रिकेट में है
तभी तो सचिन बिन गलती न दाल है ।
सोमवार, 2 नवंबर 2009
दंगा-राहत
अचानक पुनीता गेट की ओर भागी--"पापा आ गए! ...पापा! आज दो चिट्ठियां आयीं हैं-- मंजीत की और चाचा जी की। मंजीत परसों वापिस आ रही है." अपने मन का उल्लास वह पापा के साथ बांटना चाहती थी. पापा गेट खोल कर अन्दर आये, तो उनके चेहरे पर अजीब-सा तनाव था. वे बहुत परेशान और चिंतित दिखाई दे रहे थे.
इससे पहले कि ममी कुछ पूछें, वे खुद ममी के निकट आ कर बोले--"कुछ सुना तुमने? सुनने में आया है कि श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या हो गयी।"
ममी अविश्वास से उनकी ओ़र देखती रह गयीं। फिर बोलीं--"किसने कहा आपसे? क्या रेडियो पर सुना है?" पुनीता का सारा उल्लास काफूर हो गया. "पुनीता, ज़रा अन्दर से ट्रांजिस्टर तो लाना. समाचार सुनने से पक्का पता चलेगा." पापा यह कहते हुए लॉन में कुर्सी पर बैठ गए.
धीरे-धीरे दिल्ली की घटनाओं के बारे में उड़ती-उड़ती खबरें पहुँचने लगीं. अगले दिन तक मंजीत, नोनू और उनके ममी-पापा के बारे में पुनीता को कुछ पता नहीं चला. वे सब ठीक-ठाक हैं या नहीं--यह चिंता उसके मन में बढती जा रही थी. रात को सोने से पहले वह पापा से खूब बातें करना चाहती थी, पर पापा अब कम बोलने लगे थे. जैसे-जैसे खबरें आतीं, वे ज्यादा गंभीर होते जाते. पुनीता बार-बार उनके नज़दीक आती. उसे ऐसा लगने लगा जैसे वह किसी बंद दरवाजे की ओर बार-बार जाती है, लेकिन उसे खटखटाती भी नहीं, क्योंकि उस पर ताला लगा है.
"पापा! मंजीत के ममी-पापा अब तक वापस नहीं आये। उन्हें कुछ हुआ तो नहीं होगा?" पुनीता ने पापा के चेहरे की तरफ यूं देखा, जैसे उनके आश्वासन से ही सब कुछ ठीक-ठाक हो जाएगा। उधर पापा के भीतर जो कुछ बर्फ की तरह जमा हुआ था, वह पुनीता के मंजीत और उसके परिवार के प्रति सहज-सच्चे लगाव की गर्माहट से धीरे-धीरे पिघलने लगा-- "पुनीता, कल रात जब तुम सोने से पहले प्रार्थना कर रही थीं, तब मैं आँखें बंद कर के लेटा हुआ था ना? मैंने तुम्हारी प्रार्थना के शब्द सुने थे। मैं तो यही चाहता हूँ कि तुम्हारी प्रार्थना से अगर मंजीत, नोनू और उनके ममी-पापा यहाँ सकुशल लौटते हैं, तो ऐसा ही हो। पर मुझे दो-तीन दिन से ऐसा लग रहा है कि शुभकामना या प्रार्थना अच्छी होते हुए भी काफी नहीं है । इससे आगे भी कुछ करना ज़रूरी है।"
"जैसे कोई बड़ा बलिदान?" पुनीता का सवाल था ।
"देखो, बेटे! बड़ा बलिदान करने के मौके तो ज़िन्दगी में थोड़े-से ही होते हैं। अगर हम रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में छोटी-छोटी बातों का ध्यान रखें, तो उसीसे बड़ी-बड़ी मुश्किलें हल हो सकती हैं।"
"पापा! सब का सोचने का तरीका भी तो अलग-अलग होता है ना ? इससे भी मुश्किलें खड़ी हो जाती हैं।"
"नहीं, बेटे ! इससे मुश्किलें खड़ी नहीं होतीं. बल्कि यह तो अच्छी बात है. खैर, वह सब तुम्हें फिर कभी समझाऊंगा . फिलहाल तो हमें...."
"मंजीत के बारे में पता लगाना चाहिए," पुनीता ने जल्दी से पापा का अधूरा वाक्य पूरा किया।
"हाँ, बेटे ! मुझे भी आज चिंता हो रही है. कल दोपहर तक अगर वे नहीं आये, तो टेलीग्राम भेज कर पता करेंगे. "सुनो, मंजीत की चिट्ठी में वहां का फोन नंबर लिखा है क्या ?"
"नहीं, पापा. फोन नंबर तो नहीं है. बस, पता लिखा हुआ है."
पापा का ध्यान देव शरण की ओर चला गया . उसका हरियाणा में किसी स्थान पर आ कर रहना लगभग तय हो चुका था .यह निर्णय भी कोई आसान नहीं था . पापा सोच रहे थे कि देव शरण के साथ वे क्या बात करेंगे ? क्या कहेंगे उसको ?
यह मंजीत ही तो थी, जो पुनीता के सामने खड़ी थी . वही आँखें थीं, पर वैसी नहीं थीं . वही चेहरा था पर वैसा नहीं था . थोड़े-थोड़े शब्द उसके मुंह से निकलते थे, पर वह ऐसा कुछ नहीं बोल रही थी कि "पागल है तू तो !"जो भी वह कहती या करती थी, उसमें स्वयं मौजूद नहीं होती थी . ज़रूर पिछले चार दिनों में ही सब कुछ हुआ था . पुनीता को ठीक-ठीक मालूम नहीं कि क्या हुआ था . वह मंजीत के घर से लौटते हुए विचारों में खोई हुई थी . मंजीत के ममी-पापा सकुशल घर आ गए थे-- इस बात से उसके मन को बड़ी राहत मिली थी . पर उन सब का व्यवहार उसे पहेली की तरह लग रहा था . शायद पापा कुछ बता सकें .
पापा मंजीत के 'दारजी' से मिलने के लिए घर के गेट से बाहर निकल रहे थे । बाहर पड़ोस के घर की दीवार के साथ नोनू अपने दोस्त संजू के साथ बातें करने में खोया हुआ था . छोटी-सी गेंद उसके हाथ में थी . खेलते-खेलते शायद वे बातों में ज्यादा रुचि लेने लग गए थे . संजू बालसुलभ गर्व के साथ बता रहा था -- "'दिल्ली में ना मेरे मामा जी रहते हैं .उनके घर में ना एक खरगोश था . एक दिन पता है क्या हुआ ? दोपहर को बिल्ली ने उसको मार दिया ." नोनू का ध्यान संजू के पहले वाक्य में ही अटक गया लगता था . जैसे वह भी संजू से कुछ कम नहीं था, इस अंदाज़ में बोला -- "दिल्ली में तो मेरी नानी भी रहती हैं . और पता है ? मेरे तो नाना जी भी नहीं मरे ।"
पापा के कदम ठिठक गये . मंजीत के नाना-नानी के बारे में जान कर आश्वस्त तो हुए, लेकिन उनके न मरने की खबर से मिली राहत ने भी उन्हें सोचने पर विवश कर दिया .
क्या अब हम ऐसी राहतों के सहारे जिंदा रहेंगे ? आखिर हम ऐसा क्यों होने देते हैं बार-बार ?
रविवार, 1 नवंबर 2009
शुरू नवम्बर की धूप
उनींदी, अलसायी, आरामतलब-सी
निर्लिप्त भाव से पड़ी रहती है
आँगन के कोने में
दिन भर बिछी रहती है लॉन में
फिर भी महसूस नहीं होती
आती है दबे पाँव
झिझकती-सी
मैं इसे प्रायः देखता हूँ
दीवारों की अनदेखी सीढियाँ चढ़ते-चढ़ते
यह थक कर हाँफने लगती है
झुर्रियों की सर्पांकित रेखाएँ
अपना ज़हरीला असर
दिखलाती हैं
इसके चेहरे पर दिन-भर
रोज़ सुबह मैं लॉन के कोने में
कुर्सी डाल कर बैठ जाता हूँ
सोचता हूँ--
धूप आएगी
तो कुर्सी की पीठ पर सिर टिका कर
उसे अपने चेहरे के पोर-पोर में
सोख लूँगा
उसकी सुखद गर्माहट से
देह को ढाँप लूँगा
उसके अपनत्व भरे हाथों का स्पर्श
अपनी त्वचा में समो लूँगा, संजो लूँगा
संग उसके कुछ ठिठोली कर
सभी संकोच की परतें हटाऊंगा
बुलाऊंगा उसे, गपशप चलेगी
फिर बड़े शालीन लेकिन सहृदय वातावरण में
मैं उसे दीवार या छत तक विदा कर लौट आऊंगा
पर ऐसा कभी नहीं होता
लगता है --
धूप की जीवनी-शक्ति चुक गयी है
उत्साह-हीन हो गयी है वह
चेहरे से लगती है बीमार-सी
इतनी जल्दी ऐसी हो जायेगी धूप--
कभी सोचा भी नहीं था
धूप को आजकल न जाने क्या हो गया है !
गुरुवार, 29 अक्टूबर 2009
चमक-दमक
जिधर देखिये बस रौनक है ।
नए-नए चैनल टी वी पर
हर पल रहे बदल टी वी पर ।
हर दफ्तर में मेज़ के ऊपर
रक्खा रहता है कम्प्यूटर ।
पहले तो होती थी फाइल
हाथों में अब है मोबाइल ।
बिजली की तारें ज़्यादा हैं ।
सड़कों पर कारें ज़्यादा हैं ।
पीं पीं पीं पीं पों पों पों है ।
हर कोई जल्दी में क्यों है ?
रविवार, 25 अक्टूबर 2009
मरीचिका
पानी नहीं मिल रहा था । लोग शिकायत के लहजे में बातें कर रहे थे । एक युवक दो बार स्टेशन मास्टर के कमरे में झाँक आया था । उसने अपनी नोटबुक में से कागज़ फाडा । पानी न मिलने की शिकायत उस पर लिखी । सधे हुए क़दमों से वह शिकायत-पेटिका की ओर बढा ।
'ऊ....ई ...!' दर्द से चिल्लाते हुए युवक ने अपना हाथ शिकायत-पेटिका के जबड़ों में से वापिस खींच लिया । शिकायत वाला कागज़ नीचे गिर गया । पीली-पीली बर्रों का झुंड पेटिका में से निकल कर मँडराने लगा ।
'शीतल जल' वाली खिड़की के आगे से भीड़ छँटने लगी थी । नकली शीतल पेय बेचने वाले स्टाल पर भीड़ बढने लगी थी ।
मंगलवार, 20 अक्टूबर 2009
असली बात
तकलीफ़ों की सूरत, देखो,
कैसी मिलती-जुलती-सी है ।
जैसी तेरे आसपास हैं
वैसी ही दुखदायी स्थितियाँ
मुझको कर जाती उदास हैं ।
यूँ ही अकेला कर जाती हैं
हम सब को पीड़ाएं
लेकिन
यह भी क्या संताप नहीं है ?
दुख-दर्दों में टूट-टूट कर
अलग पड़े रहना ही
आख़िर क्यों हमको लाजिम लगता है ?
जुड़ भी तो सकते हैं हम-तुम
उन दुख-दर्दों में फँस कर
जो साँझे हैं, मिलते-जुलते हैं ।
मुमकिन है, तकलीफें फिर भी
ख़त्म नहीं हों ।
पर मुमकिन है
उनको ख़त्म किए जाने की
कोई राह निकल ही आए !
असली बात नहीं
दुख-दर्दों तकलीफ़ों की;
असली बात हमारे
दुख में मिल-जुल कर
रहने की भी है !
शनिवार, 17 अक्टूबर 2009
ग्रीटिंग कार्ड
दुकान में जाता हूँ, तो कितने ही रंगों का
ठहरा हुआ समंदर
फैला होता है काउंटर पर ।
दुकानदार कहता है -"कोई भी चुन लीजिये, साहब,
हमारे पास हर तरह के कार्ड हैं ।
इन कार्डों पर हँसाने-गुदगुदाने वाले कार्टून हैं ।
उन पर उतरे हुए शिमला, मसूरी, देहरादून हैं ।
कुछ पर नावें, चिड़ियाँ, फूल,
साँझ का उदास वातावरण है ।
कुछ में जंगल, बादल व निर्झर की कल-कल का चित्रण है ।
कई मिलन-दृश्य हैं प्रेमी-युगलों के सिलुएट में
कोलाज या क्यूबिक आर्ट के कार्ड हैं इस पैकेट में ।
इन कार्डों पर हँसते-मुस्काते नन्हे-मुन्नों के चित्र हैं ।
उन को पा कर खुश होंगे, अविवाहित जो मित्र हैं !
ये पेंटिंग्स बनाई हैं बच्चों ने
अपने नाज़ुक हाथों से...."
परेशान-सा हूँ मैं दुकानदार की बातों से ।
सोचता हूँ, तुम्हें कैसे ग्रीटिंग कार्ड पसंद हैं ?
क्या तुम्हें भी ऐसे ग्रीटिंग कार्ड पसंद हैं
जो वर्ष में तीन-चार गिने-चुने अवसरों के
कृत्रिम औचित्य के दायरे में बंद हैं ?
दुकानदार से नहीं कहता हूँ
फिर भी मैं सोचता रहता हूँ--
कोई ऐसा ग्रीटिंग कार्ड हो
जो उत्सवों पर नहीं,
अकेलेपन या उदासी के बेरौनक अवसरों पर
लम्बी यात्राएँ कर
तुम तक ख़ुद जा पहुँचे ।
साक्षी हो जाए जो मेरे अपनेपन का
अन्तरंग साथी हो मन के सूनेपन का
ऐसा ग्रीटिंग कार्ड जिसमें
सौहार्द का स्पर्श, आत्मीयता की गंध हो
दिखावट से मुक्त जो
स्वतंत्र-स्वच्छंद हो
ऐसा ग्रीटिंग कार्ड जो तुम्हें सचमुच पसंद हो !
शुक्रवार, 16 अक्टूबर 2009
आपस का हो प्रेम...
मिलता है उल्लास वहीं ।
दीप जहाँ भी रख दोगे तुम
होगा स्वयं उजास वहीं ।
पूजन से प्रसन्न हो कर
आएँगी लक्ष्मी, मगर सुनो--
नारायण का वास जहाँ है
लक्ष्मी करती वास वहीं ।
सोमवार, 12 अक्टूबर 2009
आसमान की सैर
लन्दन औ' पेरिस जाना तो
बात पुरानी लगती है ।
अमरीका की धरती भी
जानी-पहचानी लगती है ।
अब तो किसी नयी दुनिया की
सैर हमारे पैर करेंगे ।
इस धरती पर रहते-रहते
कर ली है भरपेट लड़ाई ।
रॉकेट में जाने से पहले
आओ, हाथ मिला लो, भाई ।
चलो, कसम खाते हैं, अब हम
नहीं किसी से वैर करेंगे ।
आसमान की सैर करेंगे !
सोमवार, 5 अक्टूबर 2009
आदरणीय चोर
सेंध लगाने की पूरी मशक्कत
मजबूरन उन्हें करनी पड़ती थी ।
हमारी अनुपस्थिति में वे आते थे
या हम सो रहे होते थे
तभी वे अपना कार्यक्रम बनाते थे ।
जब हम जाग जाया करते,
तो वे भाग जाया करते थे ।
अब हम देख रहे होते हैं
और वे हमसे हँसते-बतियाते
खुल कर हम को लतियाते हैं
चोर बिल्कुल नहीं कहलाते हैं ।
हम कसम खा कर कहते हैं
कि ये आदरणीय हैं
ये जो हमारे घर में बैठ कर
फैलते-पसरते हैं
ये जो भी करते हैं
उसमें बिल्कुल नहीं डरते हैं ।
देखो देखो कैसे सामान समेटा है
वाह-वाह क्या खूब
गठरी में बाँधने से पहले लपेटा है ।
अब चोर जादूगर होते हैं
तभी तो हम
समझदारी के नाम पर
उनकी दी हुई भ्रांतियों को ढोते हैं !
शुक्रवार, 2 अक्टूबर 2009
जय जवान जय किसान ...?
है जवानी का यही अंदाज़ अपने देश में ।
कृषक अपनी जान लेने को विवश हैं, बोलिए---
किसे अपने देश पर है नाज़ अपने देश में ?
सोमवार, 28 सितंबर 2009
मीडिया हो या नेतागण
सिर्फ़ हंगामा खड़ा करना ही मकसद है मेरा
मेरी कोशिश है कि मेरी जेब भरनी चाहिए ।
मर्मस्थल पर वार हो रहे ...
जड़ें कटीं तो ज़ाहिर है, आमों पर होगा बौर नहीं ।
आज हमारी ख़ामोशी जो कवच सरीखी लगती है
कल इसके शिकार भी यारो, हमीं बनेंगे, और नहीं ।
हिलने लगते राजसिंहासन, धरती करवट लेती है,
महलों में जब दावत हो, भूखी जनता को कौर नहीं ।
कृपया मुझको महज़ वोट से कुछ ऊंचा दर्जा दीजे
क्षमा करें, क्या मेरी यह दरख्वास्त क़ाबिले-गौर नहीं ?
इस युग में भी सीधी-सच्ची बातें करते फिरते हो
चलन यहाँ का समझ न पाए, सीखे जग के तौर नहीं ।
ठीक नहीं यूँ छोड़ बैठना परिवर्तन की उम्मीदें
ख़ुद को अगर बदल लें हम, तो क्या बदलेगा दौर नहीं ?
सोमवार, 21 सितंबर 2009
इस हद तक
दोनों तरफ़ 'अपार्टमेंट्स' थे
सामने ख़ाली सड़क ।
सूनापन था भीतर-बाहर
चौबीस घंटे चलती-फिरती
हँसती-गाती तस्वीरों के बावजूद
मन था उदास ।
ढल चुकी थी उम्र उसकी
और जा चुके थे बच्चे परदेस ।
अनायास भर कर उसाँस
जब दुआ के लिए
दोनों हाथ उठे ऊपर
तो 'डि-ओडरेंट' का ही विचार
कौंधा भीतर !
गुरुवार, 17 सितंबर 2009
हिन्दी दिवस पर सम्मान
कभी मिलती नहीं
खेल लें हँस लें यहाँ, मोहलत कभी मिलती नहीं ।
कितनी दीवारें बनाई जा रहीं उनके लिए
जिनको अपने सर के ऊपर छत कभी मिलती नहीं ।
वक़्त के विश्रामघर में भीड़ भी है शोर भी
ज़िन्दगी की राह में राहत कभी मिलती नहीं ।
शुतुरमुर्गों से भला तूफ़ान की क्या पूछिए ?
इनमें चिंता की बुरी आदत कभी मिलती नहीं ।
नया सूरज मैं कोई चिपका तो दूँ आकाश पर
अजनबी को पर यहाँ इज्ज़त कभी मिलती नहीं ।
शुक्रवार, 11 सितंबर 2009
ऐसा क्यों होता है कि....
सोमवार, 7 सितंबर 2009
बेखयाली
जा रहे होते हैं
उनकी ओर जिन्हें हम चाहते हैं
पर जहाँ हम अंततः पहुँचते हैं
वहां वे नहीं होते,
सिर्फ़ उनकी छायाएँ होती हैं ।
यह काफ़ी दुखद स्थिति होती है
पर इससे भी ज़्यादा दुखद वह होता है
जो इस सारी प्रक्रिया में
अनजाने घटित होता रहता है ।
यानी जब हम लपक कर
बढ रहे होते हैं
उनकी ओर जिन्हें हम प्यार करते हैं
उसी समय --- ठीक उसी समय
बेरहमी से नहीं, सिर्फ़ बेख़याली में
हम रौंद रहे होते हैं
उनको जो हमें प्यार करते हैं ।
वैसे यह बेख़याली बेरहमी से
कम तो नहीं होती !
शुक्रवार, 4 सितंबर 2009
शिक्षक दिवस पर
और साबुत दिखायी देता हूँ,
मेरी एक प्रतिमा खंडित हो चुकी है।
मैंने उसे खंडित होते
लगातार, खुली आँखों से देखा है।
दरअसल ऐसा एकदम से नहीं हुआ,
रातोंरात भी नहीं,
बल्कि थोड़ा-थोड़ा कर के
पिछले कई बरसों में हुआ है।
एक बार जब मैंने कहा
"कहते तो हैं पर पक्का पता नहीं"
प्रतिमा में हलकी सी दरार आयी ।
दूसरी बार जब मैंने कहा
"पक्का पता है लेकिन ऐसा कहते नहीं"
सुन कर बच्चे चौंके ।
तीसरी बार जब मैंने कहा
"यह भी ठीक है और वह भी"
वे बोल उठे -- "अच्छा जी ?"
फिर तो चौथी बार मैंने कहा
"ठीक-ग़लत के पचडे में मत पडो"
पाँचवीं बार मैंने कहा
"कुछ फर्क नहीं पड़ता
कुछ नहीं होने वाला"
यानी हर बार सिलसिलेवार
उस प्रतिमा को खंडित होते मैंने देखा
अपने बच्चों की आँखों के अन्दर
उस प्रतिमा के साथ और बहुत कुछ टूट गया
मेरे बच्चों के भीतर
बेआवाज़ लेकिन सिलसिलेवार ।
मैं यूँ ही तो नहीं इतना शर्मसार !
मंगलवार, 1 सितंबर 2009
सवाल
आया नीचे धरती पर ।
"ऐसा क्यों होता है आख़िर?"
न्यूटन ने माँगा उत्तर ।
क्यों कैसे कब क्या और किसका
किसको कहाँ ज़रूरी है ।
नासमझी और सच्चाई में
केवल इतनी दूरी है ।
देखो और सवाल उठाओ
सोचो क्या उत्तर होगा ।
तभी समस्याएं सुलझेंगी,
यह जीवन सुंदर होगा ।
शुक्रवार, 28 अगस्त 2009
प्रेमचंद मुंशी नहीं थे
अगर आप चाहें तो ऐसे प्रश्न पूछने का क्रम जारी रखा जाए । अपनी राय ज़रूर दीजिये ।
बुधवार, 26 अगस्त 2009
क्या प्रेमचंद 'मुंशी' थे ?
सोमवार, 24 अगस्त 2009
बादल की छाँव
लिपट गयी है पल भर को मुझसे गीले बादल की छाँव ।
बारिश आयी, सांझ ढले यह गाती हुई बयार चली--
"अगर शेष है प्यास अभी, पी ले पीले बादल की छाँव " ।
उड़ता हुआ वायुमंडल में अस्थिर है अस्तित्व मेरा
जैसे किसी उदास, शून्य-से, दर्दीले बादल की छाँव ।
जीने के उपकरण सभी हैं-- फूल, चाँदनी, नील गगन,
ये पहाड़, ये नदियाँ, झरने, ये टीले, बादल की छाँव ।
आती है, तो सारा जग बदला-बदला-सा लगता है,
याद तुम्हारी कहूँ इसे या सपनीले बादल की छाँव ?
मंगलवार, 18 अगस्त 2009
हुआ उजाला
अंधकार की काली चादर धरती पर से सरकी
हुआ उजाला जग में, कोई बात नहीं है डर की
चीं-चीं चीं-चीं चिड़िया बोली डाली पर कीकर की
कामकाज बस शुरू हो गया सब ने खटर-पटर की
लाया है अख़बार ख़बर सब बाहर की, भीतर की
घंटी बजी, दूध मिलने में देर नहीं पल भर की
मैं सुनता रहता हूँ हर आवाज़ रसोईघर की
मम्मी के जादू से यह लो, सीटी बजी कुकर की !
मंगलवार, 11 अगस्त 2009
कागजों की किश्तियाँ
खोजती हैं कोई सम्बल कागजों की किश्तियाँ ।
पेश्तर इसके कि छू लें क्षितिज पर छाई घटाएं
ख़ुद ही मिट जाएँगी पागल कागजों की किश्तियाँ ।
हृदय पर पत्थर धरे दायित्व कन्धों पर उठाये
खे रहे हैं लोग बोझल कागजों की किश्तियाँ ।
रिस रहा है खून पानी लाल पर होता नहीं है
मर न जायें आज घायल कागजों की किश्तियाँ ।
बेबसी में बह रहे हैं, हाथ फिर भी मारते हैं
आदमी हैं सिर्फ़ माँसल कागजों की किश्तियाँ ।
बुधवार, 5 अगस्त 2009
घटती जाती दिन-दिन ताकत जेबों की
घर पर आती नहीं टोकरी सेबों की ।
लगता है महँगाई हमसे लेगी छीन
चाकलेट, टॉफी, बिस्किट मीठे नमकीन ।
आइसक्रीम खाना भी कम हो जाएगा ।
फीका गरमी का मौसम हो जाएगा ।
नहीं खिलौने मिल पायेंगे मनचाहे ।
सपनों पर भी अंकुश होंगे अनचाहे ।
एक-एक करके होती जायेंगी बंद
वे चीज़ें जो बच्चों को हैं बड़ी पसंद ।
यही सोच कर है अपना माथा ठनका
क्या होगा भगवान हमारे बचपन का ?
रविवार, 2 अगस्त 2009
परदे होंगे, हम अलबत्ता देखेंगे
बैठ झरोखे 'जग का मुजरा' देखेंगे ।
क्या-क्या है इस नई सदी ने दिखलाया
और न जाने आगे क्या-क्या देखेंगे ।
वक़्त सदाएं देगा जब चौराहे पर,
ऊंचा सुनने वाले नीचा देखेंगे ।
आँख निरंतर खुली रखेंगे, तब जा कर
एक सुनहरे कल का सपना देखेंगे ।
वादा उसका इक मज़बूत इरादा था,
आज मगर वह बोला-"अच्छा, देखेंगे" ।
हमने सिर्फ़ सुना है दुनिया बदलेगी,
लेकिन बच्चे इसे बदलता देखेंगे ।
शुक्रवार, 31 जुलाई 2009
शेष कुशल है
खेत जहाँ थे वहां दूर तक जल-ही-जल है, शेष कुशल है ।
कैसे हैं आसार न पूछो, कब पहुंचेंगे पार, न पूछो
जर्जर नौका, टूटे चप्पू , मांझी शल है, शेष कुशल है ।
सुनते हैं कल रात दस्तकों से दरवाज़े काँप उठे थे
बंद गाँव के हर दरवाज़े की साँकल है, शेष कुशल है ।
पलक झपकते बीत गए हैं बरस कभी ऐसा लगता था
अब अक्सर बरसों जैसा लगता इक पल है, शेष कुशल है ।
बुधवार, 29 जुलाई 2009
ऐसा क्यों होता है कि.....
शनिवार, 25 जुलाई 2009
कारगिल विजय अभियान
मैंने दस साल पहले एक कविता लिखी थी । उस लम्बी कविता के कुछ अंश यहाँ प्रस्तुत हैं :
ऐसा है जीवट मानो उट्ठे आग की लपट
मान देश का अमोल, ज़िन्दगी का दाम क्या है ?
देश-प्रेम की लगन में बदन सौंप दिया
उनको मालूम नहीं ऐश क्या आराम क्या है ?
छीनने को हक सिखलाने को सबक चले
शत्रु जान ले कि शत्रुता का अंजाम क्या है ?
देश के युवक बेधड़क यही पूछते हैं--
"टाइगर चोटियों पे गीदडों का काम क्या है ?
कायल हुए हैं सभी उनकी बहादुरी के दुनिया में नाम अपना भी मशहूर किया .
खेल तो नहीं था वार झेल के धकेल देना डाल दी नकेल लौटने को मजबूर किया .
खतरा टला है खुशहालियों की आहटें हैं उनकी निडरता ने खतरा ये दूर किया .
दुश्मनों के सारे ही इरादे धुल चाट रहे उनका घमंड खंड-खंड चूर-चूर किया .
एक बार फिर से तिरंगा फहराया वहां शत्रु सेना हारी और हार भी करारी है .
सारे नर-नारी है आभारी आज सैनिकों के देशवासियों के कुछ करने की बारी है .
भारत की भूमि हमें प्यारी है तो क्यों यहाँ पे आपसी लड़ाई है बीमारी है बेकारी है ?
सरहदों पे एक जंग ख़त्म हो गयी मगर भीतरी बुराइयों से जंग अभी जारी है !
गुरुवार, 23 जुलाई 2009
वेंडी बार्कर की कविता का अनुवाद
we swim in the lake
of each other. All night
the current washes rocks
from shore, eases the jagged
places, dissolving stones
of stones into grit, sand,
the yield of siltthat reaches
all the way under this highest of
tides, entire body of water.
अंततः
एक-दूजे के जलाशय में रहे हम तैरते
रात-भर धुलती रही
घुलती रही चट्टान तट पर
धार से । जल-धार से ।
खुरदरे सब स्थल हुए समतल,
घुले पत्थर,
बने बजरी, हुए बालू ।
उच्चतम इस ज्वार में
जल की समूची देह के तल में
तरंगित पंक यूँ पैदा हुआ ।
गुरुवार, 16 जुलाई 2009
घर-बाज़ार
हर चेहरे पर पाएँगे अपनेपन की छाप ।
अपनेपन की छाप मगर बाज़ार अलग है ।
मोल-भाव या हानि-लाभ व्यापार अलग है ।
कहँ दधीचि क्या यह सुधार है जीवन-स्तर में ?
संभलो, अब बाज़ार घुसा आता है घर में !
मंगलवार, 14 जुलाई 2009
सोचो
नोक कलम की पैनी क्यों है ?
बाज़ अगर है बेकुसूर, तो
चिड़ियों में बेचैनी क्यों है ?
रविवार, 12 जुलाई 2009
गौर से देखे कोई
उनके दिल की राह ही बस आपकी मंज़िल रही है ।
गौर से देखे कोई तो साफ़ देखी जा सकेगी,
लुप्त कब की हो चुकी पर आपकी दुम हिल रही है ।
सोमवार, 6 जुलाई 2009
काली औरत ने....
नन्हे खरगोशों के रोयेंदार जिस्म ज़ख्मी कर के
जब भी मैं गुलाब की पंखुडियों की बातें करता हूँ,
शुक्रवार, 3 जुलाई 2009
तुम नहीं हो पास
फिर हवाएँ दे रही हैं दस्तकें इस द्वार पर
फिर फ़ज़ाओं में घुली हैं गंध माटी की, मगर--
तुम नहीं हो पास तो सब व्यर्थ हैं ।
गुनगुनाती छेड़ती बूँदें टपकती हैं इधर
पेड़ सारे सरसराते ही रहे हैं रात भर
बिजलियों ने गगन के ऊपर किये हस्ताक्षर
इस लिखावट का भला क्या अर्थ हैं ?
शुक्रवार, 19 जून 2009
नाच रहे कंकाल
अमृतत्व के लिए भटकते हैं ज़हरीले प्रेत यहाँ ।
बरसों से बाधित-पीड़ित हैं इस बस्ती के लोग, सुनो !
है कोई जो मन्त्र-विद्ध कर ले या कीले प्रेत यहाँ ?
भुतहा खंडहरों पर होता निष्कंटक शासन इनका
नहीं बदलने देते कुछ भी बड़े हठीले प्रेत यहाँ ।
दुर्दिन में कुदरत भी देखो, कैसे भेष बदलती है
डायन बन जाती हैं नदियाँ, लगते टीले प्रेत यहाँ ।
विडम्बना प्यासी आँखों की अंधकार में क्या कहिये ?
जिधर उठाई आँख नज़र आये चमकीले प्रेत यहाँ ।
मंगलवार, 16 जून 2009
आज नहीं आयी
इसी तरह हर रोज़ कर रही छल बारिश ।
विरही को तो यह तड़पाती है लेकिन -
हलवाहे की मुश्किल का है हल बारिश ।
बादल आँधी हवा सभी यूँ तो आये
तरसाती ही रही हमें केवल बारिश ।
देख, पपीहे, दीन वचन मत बोल यहाँ
ऐसे नहीं किया करते बादल बारिश ।
नहीं सिर्फ़ तन-मन में ठंडी आग बनी
चूल्हे कई जलायेगी शीतल बारिश ।
लोग कर रहे हैं कुदरत का चीर-हरण
हरियाली लाती जंगल-जंगल बारिश ।
अस्त हो रहा सूरज भी मुस्काएगा
लहराएगी सतरंगा आँचल बारिश ।
रविवार, 7 जून 2009
जून का महीना
मन में बेचैनी और तन पे पसीना है ।
पानी पी-पी कर गरमी को सब कोसते हैं
और कहते हैं अभी और पानी पीना है ।
छीना सुख-चैन आया जब से मगर सुनो,
जून का महीना मानसून का महीना है !
शुक्रवार, 5 जून 2009
जहाँ भी गये हो
किया हैं विनाश जहाँ रखा पग तुमने ।
भाले, ताले, तीर, शमशीर औ' ज़ंजीर बने,
सब को दीवारों से किया अलग तुमने ।
पशु या विहग, पेड़-पौधे डगमग हुए,
विष-भरी की धरा की रग-रग तुमने ।
प्लास्टिक की बनी हैं करधनी धरती की,
कितनी लगन से सजाया जग तुमने !
गुरुवार, 21 मई 2009
तौलिया बोला
शोरूम से निकला
और बाथरूम में नहीं पहुँचा ।
बल्कि वह यकबयक ऐसी हालत में
देखा गया कि पानी-पानी हो गया ।
ऐसा लगा मानो ख़ुद को ढकने के लिए
कोई तौलिया ढूँढ रहा हो।
हुआ यूँ कि टी वी के बीसियों कैमरों की
चुँधियाती रोशनियाँ उस पर पड़ रहीं थीं
और उसे किसी भ्रष्टाचारी के संग
अदालत में ले जाया जा रहा था।
तौलिया बोला -- "सभी के काम आता हूँ।
ढापता हूँ, पोंछता हूँ, मैं सुखाता हूँ।
सोचने का काम तो इंसान करता है।
सोचना उसका मुझे हैरान करता है।
इतनी हलचल हडबडाहट किसलिए आख़िर ?
कैमरों की चौंधियाहट किसलिए आख़िर ?
मैं भी हूँ पतलून कोई, कोट, शर्ट, कमीज़ ?
देखिये, कुछ सोचिये, मैं तौलिया नाचीज़ ।
यूँ अदालत में न लेकर जाइए मुझको।
कम-से-कम कुछ काम तो बतलाइये मुझको।
कौन-सा मुझको करिश्मा कर दिखाना है ?
फ़ैसला कीजे, मुझे किस काम आना है ?
ढाँप कर चेहरे कभी थकता नहीं हूँ मैं।
कारनामे पोंछ, पर, सकता नहीं हूँ मैं !"
मंगलवार, 12 मई 2009
शिकायत
"कितना भी समझा लो, लेकिन
बच्चे सुनते नहीं किसी की"--
यही शिकायत होती है ना
हम सब के पापा-मम्मी की ?
खुद कब सुनते हैं, बोलो,
क्या हम उनकी संतान नहीं हैं ?
पढने लिखने की तो हम को
देते हैं दिन-रात हिदायत ।
अगर कभी हम टी वी देखें
तो होती हैंखूब शिकायत ।
कुछ तो सोचो, भला हमारी
आँख नहीं हैं, कान नहीं हैं ?
हम भी कुछ अनजान नहीं हैं !
सोमवार, 11 मई 2009
बाज़ार प्यास का
कमर कस रहे शीतल पेय बनाने वाले ।
है बाज़ार प्यास का और मुनाफ़ा भारी ।
होड़ लगी, भिड़ने की है पूरी तैयारी ।
ऐसे में "पानी-पानी" करते अज्ञानी ।
इस नादानी पर होते हम पानी-पानी !
गुरुवार, 7 मई 2009
दो हज़ार पंद्रह
प्रभु ने दर्शन दिये किसी को पूजा से खुश हो कर,
बोले-- "जो भी कार चाहिए, तुम बस 'ब्रैंड' बताओ
लेकिन पहले मुझको कोई ख़ाली सड़क दिखाओ !"
सोमवार, 4 मई 2009
परिणाम
"पापा, यह तो दो फेलों का एक अनोखा मेल हो गया ।
इधर दुखी था मैं विज्ञान गणित इंग्लिश के मारे,
उधर आप भी लोक सभा के इस चुनाव में हारे ।"
शुक्रवार, 1 मई 2009
मई दिवस
मज़दूरों के अधिकारों का दिन है ।
तुलसी लछमी कमला घर पर रहतीं
पुरुष कहें ये खाली दिन भर रहतीं।
मन में पीड़ा चिंता उधेड़बुन है
फिर भी अनथक काम करें यह धुन है ।
पूर्वाग्रह यह टस से मस कब होगा ?
महिलाओं का 'मई दिवस' कब होगा ?
शुक्रवार, 24 अप्रैल 2009
छोड़ो छोड़ो
'ग्लोबल' हों; पिछड़ेपन का दामन छोड़ो ।
प्रेमचंद टैगोर भारती औ' ग़ालिब
इनको भूलो, तुलसी औ' कम्बन छोड़ो ।
यानी ज़िन्दा रहने को बेशक रह लो --
लेकिन साँसें दिलो-जिगर धड़कन छोड़ो ।
गुरुवार, 23 अप्रैल 2009
जन्म-दिवस
कुछ इस तरह मनाऊंगा
घर के आँगन के कोने में
कोई पेड़ लगाऊंगा ।
घर में जो बाई आती है
उसके घर जाऊंगा मैं
खूब मिठाई उसके बच्चों
को दे कर आऊंगा मैं ।
रंगों का डिब्बा भी दूँगा
कापी, पेंसिल, पेन, किताब ।
मेरे अगले जन्म-दिवस की
ऐसी है योजना, जनाब !
सोमवार, 20 अप्रैल 2009
गरम पराठे
गरम पराठे खाऊंगा ।
उसके बाद गिलास दूध का
गट-गट-गट पी जाऊंगा ।
रोज़ सवेरे जल्दी-जल्दी
होना पड़ता है तैयार ।
छह दिन तक ऐसा होता है
तब जा कर आता रविवार ।
छुट्टी के दिन तो मत रोको
हँसने और हँसाने से ।
सफल आज की छुट्टी होगी
गरम पराठे खाने से !
शुक्रवार, 17 अप्रैल 2009
अपना पथ है ...
क्या कहते हो ? साथ चलोगे ? सोच लिया है ? बिल्कुल ठीक ।
चल खोखे पर कड़क चाय के घूँट भरें, कुछ बात करें
नहीं बोलना तो कम-से-कम बैठेंगे फिर से नज़दीक ।
तू जादूगर-सा शायर है, मन को मोहित करती हैं --
मिसरी जैसी मीठी-मीठी बातें तेरी बड़ी सटीक ।
बड़े नफ़ीस लोग हैं, उनकी महफ़िल में अपना क्या काम ?
उन्हें चाहिए चिकनी-चुपड़ी, अपना तो लहजा निर्भीक ।
मेरा उसको 'पागल' कहना, ठीक वही तेरा ऐलान --
बड़ा फ़र्क है इन दोनों में, है चाहे बिल्कुल बारीक ।
कहाँ ग़ज़ल का ऊँचा रुतबा, कहाँ तेरे बौने अल्फाज़
इसका दामन छू न सकेगा सीख के तू कोरी तकनीक ।
सोमवार, 13 अप्रैल 2009
पाँच छुट्टियाँ
था बिल्कुल संयोग मगर हमको पसंद था
यही पूछते थे बाबू, अफ़सर, दारोगा--
'अगली बार बताओ ऐसा फिर कब होगा ?'
शनिवार, 11 अप्रैल 2009
विष्णु जी के लिए...
अमर मसीहा आवारा की कथा कही है।
गहन विचारों के शिल्पी अप्रतिम अनूठे,
नहीं रहे तुम; 'धरती अब भी घूम रही है' !
गुरुवार, 9 अप्रैल 2009
आज तक क्या कभी...
नहीं इतिहास कब्रगाह फ़क़त
बूँद अमृत की एक बेचारी
साँस लेते हैं, चलते-फिरते हैं
जान फूँकी 'दधीचि' ने इनमें
सोमवार, 6 अप्रैल 2009
अख़बार
साइकिल पर मैं चढ़ लेता हूँ
चित्रकथाएं पढ़ लेता हूँ
सीख गया हूँ इतनी चीज़ें
खुद कहानियाँ गढ़ लेता हूँ ।
रोज़ बदलता रहता है यह,
कैसा है संसार, पढूंगा .
दंगा बाढ़ चुनाव कहीं पर
हड़तालें घेराव कहीं पर
खेलों की है हार-जीत तो
बाज़ारों के भाव कहीं पर .
कैसे चलती है भारत की
चुनी हुई सरकार, पढूंगा .
मैं भी अब अख़बार पढूंगा .
शनिवार, 4 अप्रैल 2009
वो क्या बनेगी ?
या जग को जगमगाए, ऐसा दिया बनेगी ?
नन्ही अबोध बच्ची यह स्वप्न देखती है--
इक रोज़ वो भी शायद 'मिस इंडिया' बनेगी !
शुक्रवार, 3 अप्रैल 2009
नेता उवाच
बेदम हो कर नेता उवाच
फिर शुरू हुआ संघर्ष सुनो
आया चुनाव का वर्ष सुनो
संधान कोई तो बाण करो
बेहतर छवि का निर्माण करो
खोजो खोजो कुछ जनाधार
या झूठा-सच्चा हो प्रचार
लेकिन 'दधीचि' का यही तर्क
प्यारे वोटर, रहना सतर्क !
रविवार, 29 मार्च 2009
आम
शुक्रवार, 27 मार्च 2009
बाल-कविताओं की ज़रूरत
निस्संदेह आज की दुनिया दो दशक पहले की दुनिया से बिलकुल भिन्न है। सॅटॅलाइट केबल टेलिविज़न, कम्प्यूटर, मोबाइल व इंटरनेट के मध्य पले-बढ़े बच्चे, चौबीस घंटे विज्ञापनों, कार्टून फिल्मों, रंग-बिरंगी लुभावनी उपभोक्ता सामग्री से घिरे रहने वाले बच्चे वैसे हो भी नहीं सकते, जैसे नब्बे के दशक से पहले वाले बच्चे थे। जानकारी का दायरा बढ़ गया है; ध्यान पहले से कम केन्द्रित हो पाता है; भोलापन और मासूमियत घटते जा रहे हैं; तथ्य-विचार, यथार्थ-कल्पना परस्पर गड्ड-मड्ड होने लगे हैं। लेकिन नयी पीढ़ी के बच्चों के लिए कविताओं की ज़रूरत, आप विश्वास करें, अब और भी ज़्यादा है। उन्हें हम अच्छी कविताएँ नहीं देंगे, तो बाजारूपन और उपभोक्तावाद की मानसिकता से ग्रस्त अथवा हिंसा, भ्रष्टाचरण, एवं कट्टरपंथ के संवाहक तत्त्व तथा भाषा के संस्कारों को विकृत करने वाली शक्तियां -- ये सब अपने-अपने कुत्सित इरादों में सहज ही कामयाब हो जायेंगे। इस मायने में बच्चों के लिए अच्छी कविताओं का सृजन पर्यावरण को प्रदूषण रहित बनाने के कार्य जैसा ही सार्थक और महत्त्वपूर्ण है।
बाल-कविताएँ 'बच्चों के लिए' हैं, मात्र इसलिए लय -ध्वनि-भाषा-छंद-मुहावरे आदि के बारे में मानकों व स्तर को लेकर हमें समझौता नहीं करना चाहिए। बल्कि कविताएँ ऐसी हों, जो छंदों की विविधता, सरल व रोचक शब्द-चयन, मुहावरों के सटीक प्रयोग, ध्वनियों-शब्दों की चमत्कारपूर्ण आवृत्तियों, शब्द-विन्यास के सही स्वरूप आदि की दृष्टि से हिन्दी का व्यावहारिक ज्ञान भी स्वतः करवा दें।
बुधवार, 25 मार्च 2009
शुक्र है
वे ख़ूब गुस्सा करते हैं
आपस में ही नहीं, माँ-बाप से भी
दूसरों से ही नहीं, अपने आप से भी
उन्हें गुस्सा आता है
अन्दर से निकलता है
चेहरे पर बिखर जाता है
आँखों में हाथों में साफ़ दिख जाता है
कितनी ख़ुशी की बात है
कि हमारे नन्हे-मुन्ने
नहीं होते हमारी तरह
समझौतापरस्त
शातिर काइयाँ और घुन्ने !
रविवार, 22 मार्च 2009
मार्च-अप्रैल की मुकरियां
मार्च में आये, खूब सताये
शाम ढले वह राग सुनाये
रात चिकोटी काटे डट कर
क्यों सखि, साजन ? ना सखि, मच्छर !
२.
फिर उसको लाया अप्रैल
अबके और गया है फैल
बच्चों के तन-मन को कसता
क्यों सखि, साजन ? ना सखि, बस्ता !
गुरुवार, 19 मार्च 2009
आखिर ऐसा क्यों ?
उनके बारे में कुछ किये बगैर
मैं बस उन्हें चाट जाना चाहता हूँ।
आखिर ऐसा क्यों चाहता हूँ मैं
कि नित नयी पोलें खुलें
नित नए भांडे फूटें
नित नए परदे फाश हों?
क्यों टटोलता हूँ अख़बार के पन्नों को
नयी पोलें खुलने की लालसा के साथ?
वैसे कितनी ही ऐसी शर्मनाक बातें हैं
जिन्हें शहर का बच्चा-बच्चा जानता है
वे पुरानी पोलें हैं जो पहले ही खुली हैं।
उनके बारे में भी मैं कुछ नहीं करता।
सवाल तो यह है कि मैं कुछ करना भी चाहता हूँ क्या?
या फिर बिल्ली की तरह
लपालप लपालप
दूध-मलाई चाटना ही मुझे अच्छा लगता है
ताकि अपनी लसलसी जीभ
को मूंछों पर फेरता रह सकूं!
सोमवार, 16 मार्च 2009
बात करती है नज़र....
यानी तूफ़ान तो भीतर है, किनारे चुप हैं ।
ऐसा लगता है अभी बोल उठेंगे हँस कर
मंद मुस्कान लिए चाँद-सितारे चुप हैं ।
उनकी खामोशी का कारण था प्रलोभन कोई
और हम समझे कि वो खौफ़ के मारे चुप हैं ।
बोलना भी है ज़रूरी सांस लेने की तरह
उनको मालूम तो है फिर भी बेचारे चुप हैं।
भोर की वेला में जंगल में परिंदे लाखों,
है कोई ख़ास वजह सारे के सारे चुप हैं।
जो हुआ, औरों ने औरों से किया, हमको क्या ?
इक यही सबको भरम जिसके सहारे चुप हैं ।
गुरुवार, 12 मार्च 2009
काश !
और छेद बस दांतों में बनते, बाबा !
अच्छा होता, अगर हमारे जीवन में
दाग़ सिर्फ़ कपड़ों पर ही लगते, बाबा !
मंगलवार, 10 मार्च 2009
नारी है या....?
रविवार, 8 मार्च 2009
खिलते हैं फूल
अब के बरस भँवरे तो परे जा रहे हैं
रूठते हैं और फूल उनको मनाते हैं।
चुन-चुन बुनते हैं मीठे-मीठे सपने-से
उनके कानों में गीत नए-नए गाते हैं--
"अच्छा है शगुन, सुन, गुन-गुन मत कर,
शुक्रवार, 6 मार्च 2009
घटनाओं से इतर चीज़ें
उनके लिए स्थान और समय
तय कर पाना संभव नहीं रहा।
घटनाएँ हर जगह दनादन घुसी आती हैं
घटनाओं से इतर चीज़ें
सन्न रह जाती हैं।
घटनाएँ खुल कर घटती हैं
और घटनाओं से इतर चीज़ें
घटती चली जाती हैं
मिटने लग जाती हैं।
ऐसी सब चीज़ें अखबारों से बाहर हैं
टी वी से बेघर हैं।
घर में बाज़ारों में
सड़कों-चौराहों पर
कोनों में दुबकी हैं
घटनाओं से इतर चीज़ें।
ये सारी चीज़ें यदि गुम भी हो जायेंगी
तो भी अखबारों में स्थान नहीं पाएंगी।
ऐसा हो जाने पर
हर ओर केवल
घटनाएँ रह जायेंगी!
बुधवार, 4 मार्च 2009
अपराधी
निकुंज बाबू के दिन की इस शुरुआत से ऐसा न समझें कि यह वरिष्ठ नागरिक दुनिया की सच्चाइयों से बेखबर रहता होगा। बल्कि उनकी दिनचर्या का अगला कदम अख़बार पढ़ना ही है। बहरहाल, अप्रैल के जिस दिन का हम ज़िक्र कर रहे हैं, वह और दिनों कि अपेक्षा कुछ ज़्यादा ही यादें लेकर आया है। उस ज़माने की यादें जब उनकी ज़िन्दगी घटनाओं और एक्शन से भरपूर थी। अब यह भी उन्हें याद नहीं आ रहा कि स्मृतियों की इस बरसात की पहली बूँद ने कैसे उन्हें छुआ था। दिमाग़ पर थोड़ा ज़ोर दे कर सोचा तो उन्हें याद आया कि अख़बार पर तारीख पढ़ते हुए उनकी यादों में जीवन के वसंत का वह दिन लौट आया जब वे स्कूल में पढ़ते थे। उनकी कक्षा में गरिमा नाम की एक लड़की थी, जिसका नाम बताने का वैसे कोई मतलब नहीं, क्योंकि इस नाम से उन्होंने उसे कभी बुलाया ही नहीं। वे तो हमेशा उसे 'मोटी' ही पुकारते थे। ऐसे नामों के लिए कोई तर्क हो भी सकता है, पर अक्सर ये यूँ ही व्यक्तित्व को परिभाषित-सा करने वाले चिढ़ाने के निश्चित तरीके के रूप में इस्तेमाल होते हैं। गरिमा इस नाम से ख़ास तौर पर इसीलिए चिढ़ती भी थी।
एक बार उसने निकुंज से एक किताब मांग कर ली। तीन दिन बाद जब पुस्तक वापस आयी, तो भीतर के मुखपृष्ठ पर छपे हुए कुछ अक्षरों के नीचे पेंसिल से लिखी कुछ संख्याओं पर निकुंज की नज़र पड़ी। एक से चौदह तक। यह कोई संकेत या संदेश था। संख्याओं के क्रम से उसने अक्षरों को जोड़ा। संदेश अंग्रेज़ी में धन्यवाद का था, यानी टी-एच-ए-एन-के-एस-टी-ओ-एन-आई-के-यू-एन-जे, 'निकुंज को धन्यवाद'। इसके लगभग दो सप्ताह बाद की बात है। निकुंज ने नोट-बुक में एक पृष्ठ खोल कर गरिमा की ओर वह नोट-बुक बढाई। "क्या है?" उसने पूछा। "ख़ुद देख लो। आज मैं तुम्हारी बुद्धि की परीक्षा के लिए एक नया रोचक खेल लाया हूँ।" गरिमा ने देखा - सामने पृष्ठ पर कुछ खाली वर्गाकार आकृतियाँ कतार में बनी हुई थीं और उन रिक्त स्थानों के ऊपर अलग-अलग संख्याएँ लिखी हुई थीं--१-१६-१८-९-१२-६-१५-१५-१२। तर्कहीन, बिना किसी क्रम के। निकुंज ने अनुभव किया कि थोडी उत्सुकता जाग रही है, तो आगे बोला, " इन रिक्त स्थानों को भर सको, तो तुम्हें पता चल जाएगा कि मैं तुम्हें क्या बनाना चाहता हूँ।" फिर दो क्षण रुक कर बोला, " तुम्हारी मदद के लिए एक संकेत दूं?" इस तरह चुनौती के बाद प्रलोभन भी प्रस्तुत कर दिया। कुछ देर सोचने के बाद गरिमा ने पूछा, " हाँ, बताओ। बस, संकेत करना; उत्तर मत बताना।" " देखो, इसका तरीका कुछ-कुछ वैसा ही है, जैसा तुमने मेरी इंग्लिश की रीडर के टाइटल पेज पर अपनाया था।" फिर थोड़ा रुक कर उसने जोड़ा, " मैंने तो एकदम इसका उत्तर खोज लिया था।" गरिमा को चिढाने के लिए इतना काफी था। आज निकुंज इतना सचेत था कि उसे 'मोटी' कह कर बुलाने से बच रहा था। लेकिन इस बात पर गरिमा का ध्यान ही नहीं गया। पेंसिल लेकर वह खाली स्थान भरने में जुट गई। तरीका सीधा-सादा था--'एक' के लिए 'ए', 'दो' के लिए 'बी', 'तीन' के लिए 'सी' और इसी तरह 'छब्बीस' के लिए 'ज़ेड' इस तरह अक्षर भरने थे। इस बीच निकुंज ने कहा कि इन वर्गों को क्रम से भरना ज़रूरी नहीं है, तो गरिमा का काम और भी आसान हो गया। लेकिन एक बार सारे अक्षर भरने के बाद उसने जो पढ़ा, तो ए-पी-आर-आई-एल-ऍफ़-ओ-ओ-एल यानी 'april fool' पढ़ते ही वह उसी पेंसिल को हथियार बना कर निकुंज की ओर लपकी, लेकिन वह 'मोटी', 'मोटी' कह कर उसे चिढ़ाता हुआ भागा । ज़्यादा दूर नहीं, क्योंकि पीछे मुड़ कर उसे गरिमा का गुस्से से भरा चेहरा, हंसी और नाराज़गी के मिले-जुले भाव व्यक्त करती उसकी आँखें भी तो देखनी थीं।
बात तो छोटी-सी थी, पर निकुंज को उन आँखों में गुस्सा कुछ ज्यादा और हंसी बहुत थोड़ी दिखाई दी। फिर उसने निकुंज को कुछ ऐसा कह दिया, जिसे वह आज तक भूल नहीं पाया है। " यही बनाओगे तुम मुझे! और तुमसे उम्मीद भी क्या की जा सकती है ?" यूँ कहा गया, मानो अपने आप से कहा हो। इसके बाद वह पांच-छः रातों तक ठीक से सो नहीं पाया था। गरिमा की आँखों का वह अचानक बुझा-बुझा भाव और उसकी वह निराशापूर्ण आत्मालाप जैसी टिप्पणी उसके मन को कई दिनों तक पल-पल सालते रहे।
इससे पहले भी एक बार खेल-खेल में उसने कुछ बच्चों के साथ मिल कर एक योजना बनाई थी। दरअसल, रोहित को कचरे के ढेर में लोहे का एक खोल मिला था, जिसके आगे लेंस लगा था। संभवतः किसी वाहन के आगे रोशनी के लिए बनाया गया होगा। बच्चों ने उसे अपनी कल्पना से कैमरा मान लिया। फिर निकुंज ने योजना बनाई, जिसके अनुसार गरिमा को बुला कर वह जादू का कैमरा दिखाया गया। थोड़ी-सी कोशिश से निकुंज ने उसे फोटो खिंचवाने के लिए तैयार कर लिया। वह कुर्सी पर बैठी और रोहित अपने 'कैमरे' के साथ उसके सामने छह फीट की दूरी पर खड़ा हो गया। निकुंज कुर्सी के पीछे था और तीन-चार लड़के-लड़कियां जादू का खेल देखने के लिए मौजूद थे। कैमरे में कुछ क्षण झाँकने के बाद योजना के अनुसार रोहित ने कहा, " गरिमा, तुम ज़रा एक बार खड़ी हो जाओ और कैमरे के लेंस पर नज़र टिकाये रखो। " गरिमा ने निर्देश का पालन किया। " ठीक है," रोहित बोला, " अब तुम इसी तरह लेंस पर नज़र टिकाये हुए बैठ जाओ।" ज्यों ही गरिमा ने बैठना चाहा, धड़ाम से फर्श पर गिरी, क्योंकि कुर्सी निकुंज ने पीछे से चुपचाप खिसका ली थी। फिर तो 'मोटी', 'मोटी' का शोर हुआ और बच्चों ने हँस-हँस कर इस तमाशे का खूब आनंद लिया। उस दिन भी गरिमा ने गुस्से से आँखें तरेर कर निकुंज को देखा था। हँसते-हँसते अचानक वह चुप-सा हो गया था। उन आँखों के दर्द और अपमान के भावों ने उसे तीन-चार रातों तक सोने नहीं दिया ।
'एप्रिल फूल' वाली घटना के बाद एक और छोटी-सी घटना हुई थी, जो पहले वाली घटनाओं की तरह योजनाबद्ध नहीं थी, बल्कि अचानक हो गयी थी। स्कूल में वार्षिक समारोह की तैयारी पूरी हो चुकी थी और कार्यक्रम की अंतिम रिहर्सल प्राचार्य के सामने प्रस्तुत करने के लिए सब बच्चे तैयार थे। नीली फ्राक और सफ़ेद ब्लाउज में गरिमा खुश थी। टीचर से अनुमति लेकर वह पानी पीने नल की ओर गयी, तो वहां निकुंज खड़ा था। जैसा बच्चे अक्सर करते हैं, पानी पीकर गरिमा ने पानी के छींटे उसके कपडों पर डाल दिए। निकुंज के हाथ में एक फाउंटेन पेन था, जो उसे दो दिन पहले ही उपहार में मिला था। उसने आव देखा न ताव, तुंरत प्रतिशोध के लिए नीली स्याही के छींटे गरिमा के कपड़ों पर डाल दिए। बाद में टीचर के बार-बार पूछने और डांटने पर भी उसने निकुंज का नाम नहीं बताया था। पर उसकी आँखों में जो खामोशी और पीड़ा का भाव था, वह इतना मर्मस्पर्शी था कि निकुंज उन आँखों के बिम्ब को महीनों तक मन से हटा नहीं पाया था। उसका किसी काम में मन नहीं लगता था। उस दिन के बाद उसने कभी गरिमा को 'मोटी' नहीं कहा। कहता भी तो कैसे ? गरिमा ने तो उसके बाद उससे कभी बात ही नहीं की।
उस दिन को याद कर के निकुंज बाबू की आँखें सजल हो आयीं। यह अचरज की बात थी। इस घटना को आधी सदी से भी ज्यादा अरसा हो गया था। अगर वह किसी को यह सब सुनाएँ, तो आज उनकी आँखों का सजल होना कोरी भावुकता ही कहलायेगा। पर उनके मन में चुभे हुए कांटे की-सी यह पीड़ा पुरानी पड़ती ही नहीं।
निकुंज बाबू के हाथ में अख़बार अभी तक यूं ही था। इसी पर अप्रैल की तिथि पढने के बाद वे यादों में खो गए थे। अपने आप को ज़रा सँभाल कर उन्होंने अख़बार की ख़बरों पर सायास ध्यान केन्द्रित करना चाहा। तीसरे पृष्ठ पर एक समाचार ने बरबस उनका ध्यान आकृष्ट किया। किसी युवती को राह चलते रोक कर एक युवक ने उसके चेहरे और कपड़ों पर तेजाब डालने का प्रयास किया था। निकुंज बाबू सोच में डूब गए। स्याही और तेजाब में फ़र्क होता है, लेकिन फ़र्क सिर्फ पीड़ा, नुकसान या अपमान का ही नहीं होता। वह तो सब की समझ में आ ही जाता है। एक और बहुत महीन अंतर भी होता है। कोरी भावुकता से बच कर रहना एक स्थिति है और निहायत संवेदनहीन हो जाना दूसरी स्थिति। व्यवहार में हम दोनों का अंतर नहीं बनाये रख सकते हैं। हमें देखना चाहिए कि हम सजल आँखों वाली भावुकता से बचे रहने की सावधानी में अनजाने ही भीतर से बिलकुल निर्मम और संवेदनारहित तो नहीं होते जा रहे हैं। निकुंज बाबू उस अपराधी युवक की बात फिलहाल नहीं सोच रहे हैं, जिसे अपराधी के रूप में पहचान लिया गया है। वे तो हमारे-आपके जैसे उन लोगों की बात सोच रहे हैं, जो अख़बार से मिली इस सूचना को ग्रहण करेंगे और किसी भी तरह की भावुकता से बच कर रहेंगे।
सोमवार, 23 फ़रवरी 2009
विज्ञापन-संदेश
इंसानों को जूतों, कपड़ों, त्वचा, केश से सदा परखना।
दृष्टिकोण चाहे जैसा हो, ब्रश का कोण ठीक ही रखना।
शनिवार, 21 फ़रवरी 2009
मैं क्यों लिखता हूँ? (दूसरा भाग)
शनिवार, 14 फ़रवरी 2009
मैं क्यों लिखता हूँ ? (पहला भाग)
चाहे यह तय है कि अपने व्यक्तिगत-सामाजिक जीवन के यथार्थ से जुड़ा हुआ रचना-क्रम ज़्यादा महत्त्वपूर्ण है, फिर भी किसी-न-किसी स्वीकृत आदर्श या ऊँचाई की ओर प्रस्थान का उपक्रम कवि या लेखक की रचनाओं में मौजूद रहता है। बदलाव की जिस कोशिश का मैंने अभी ज़िक्र किया है, वह किन्हीं जीवन-मूल्यों और आदर्शों के सन्दर्भ में ही सार्थक हो सकती है। ये कोई बड़े, उदात्त, क्रन्तिकारी, रामबाण-तुल्य या चमत्कारपूर्ण आदर्श नहीं, बल्कि रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में अपनाए जाने लायक ऐसे दिशा-निदेशक स्वस्थ मूल्य हैं, जो अपने समाज की पूर्ववर्ती पीढ़ियों द्वारा इतिहास के लम्बे अरसे के दौरान विकसित किये गए हैं और परंपरा या विरासत के रूप में हमें आज उपलब्ध हें ।
ये मूल्य और आदर्श बेहद सीधे-सादे और सामान्य लगने के बावजूद आधारभूत हें और अत्यंत महत्त्वपूर्ण हें। जैसे सहिष्णुता और सहनशीलता दोनों ही बातें आज की स्थितियों में ज़्यादा ज़रूरी हो गयी हें। समाज में, परिवार में, देश में, संसार में अपने से इतर जो ' दूसरे' हैं, जिन्हें हम 'दूसरे' मानते रहते हैं, उनके प्रति स्वागत और खुलेपन का दृष्टिकोण, उनके लिए स्थान छोड़ने व उनका ध्यान रखने की प्रवृत्ति -- इन बातों की आज ज़रुरत है। डर, असुरक्षा, बेचैनी, छीनाझपटी हो या किन्हीं अन्य भीतरी कमज़ोरियों अथवा बाहरी दबावों से उपजी आक्रामकता, असहिष्णुता, नफरत और वहशीपन हो-- इन सबसे निजात पाई जा सकती है। इसी विश्वास और आस्था की डोर से बांध कर कविता, कहानी, लेख अदि लिखना मुझे सार्थक ही नहीं, अनिवार्य लगने लगता है।
स्थितियों में बदलाव लाने के उद्देश्य से किया गया किसी भी तरह का हस्तक्षेप तब तक सार्थक नहीं हो सकता, जब तक उसके पीछे स्थितियों की ठीक-ठीक समझ भी काम न कर रही हो। आज के माहौल में समस्या सिर्फ शोषण, अन्याय, अत्याचार आदि के स्थूल रूप से पहचाने जा सकने वाले विविध रूपों की ही नहीं है, बल्कि हमारी चेतना, जीवन-दृष्टि और संवेदना के विस्तार और गहराई के ख़िलाफ़ काम करने वाले उन सूक्ष्म दबावों तथा छिपे हुए कारकों की भी है, जो न केवल हमारी चेतना को सीमित करते हें, बल्कि परोक्ष रूप में उसे विकृत भी करते रहते हें।ऐसे हालात में स्थितियों की ठीक-ठीक समझ बनाना और उनके पूरे परिप्रेक्ष्य को ध्यान में रख पाना पहले से कहीं ज़्यादा दुष्कर हो गया है।
गुरुवार, 12 फ़रवरी 2009
बर्फ़ के ख़िलाफ़
पत्थर बन चुकी बर्फ़ के ख़िलाफ़ क्या किया जाए ?
या तो ऐसा करें
कि उसके ठोस रपटीले सीने पर बीचोंबीच
मज़बूती से नोकदार सुआ रख कर
प्रहार करें
करते चले जायें
जिससे वह टूटे, कमज़ोर हो
इससे चाहे जितना भी शोर हो।
या फिर ऐसा कर सकते हैं
चुपके से बर्फ़ के माहौल में
थोड़ी सी आंच भर सकते हैं
यूँ उसके महातुष्ट रपटीले सीने पर
ऊष्मा के स्पर्श भरा हाथ धर सकते हैं
ऐसा कर देने से
पथरायापन खो कर
पानी-पानी हो कर
बदलेगी बर्फ़
पत्थर बन चुकी बर्फ़ के ख़िलाफ़
कौन-सा तरीका अपनाएं ?
बर्फ़ को तोड़ें या पिघलाएं ?